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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२८४

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सेवासदन
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हृदय सागर में भक्ति की तरंगे उठ रही है। इसी प्रेम और भक्ति की निर्मल ज्योति से हदय को अँधेरी कोठरियाँ प्रकाश पूर्ण हो गई है। मिथ्या भिमान और लोकलज्जा या भयरूपी कीट पतंग वहाँ से निकल गये है। अब वहाँ न्याय, प्रेम और सव्यवहार का निवास है।

आनन्द के मारे सदन के पैर जमीन पर नहीं पड़ते। वह अब मल्लाहों को कोई-न-कोई काम करने का हुक्म देकर दिखा रहा है कि मेरा यहाँ कितना रोब है। कोई चारपाई निकालने जाता है, कोई बाजार दौड़ा जाता है। मदनसिंह फूले नहीं समाते और अपने भाई के कानों मे कहते हैं, सदन तो बड़ा चतुर निकला। मैं तो समझता था, किसी तरह पड़ा दिन काट रहा होगा, पर यहाँ तो बड़ा ठाठ है।

इधर भामा और सुभद्रा भीतर गईं। भामा चारो ओर चकित होकर देखती थी। कैसी सफाई है! सब चीजे ठिकाने से रखी हुई है। इसकी बहन गुणवान मालूम होती है।

वह सौरीगृह में गई तो शान्ता ने अपनी दोनों सासो के चरण स्पर्श किये। भामाने बालक को गोद में ले लिया। उसे ऐसा मालूम हुआ मानों वह कृष्ण का ही अवतार है। उसकी आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे।

थोड़ी देर में उसने मदनसिंह से आकर कहा, और जो कुछ हो पर तुमने बहू बड़ी रूपवती पाई है। गुलाब का फूल है और बालक तो साक्षात भगवान का अवतार ही है।

मदन--ऐसी तेजस्वी न होता तो मदनसिंह को खीच कैसे लाता?

भामा--बहू बड़ी सुशील मालूम होती है।

सदन-—तभी तो उसके पीछे माँ बाप को त्याग दिया था।

सब लोग अपनी अपनी धुन मे मगन थे, पर किसी को सुधि न थी कि अभागिनी सुमन कहाँ है।

सुमन गंगा तटपर सन्ध्या करने गई थी। जब वह लौटी तो उसे झोपड़े के द्बार पर गाड़ियाँ खड़ी दिखाई दी। दरवाजे पर कई आदमी बैठे थे। पद्मसिंह को पहचाना समझ गई कि सदन के माता-पिता आ