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सेवासदन
 


सुमन गिरती-पड़ती चली जाती थी, मालूम नहीं कहाँ, किधर? वह अपने होश में न थी। लाठी खाकर घबराये हुए कुत्ते के समान वह मूर्छावास्था में लुढ़कती जा रही थी। सँभलना चाहती थी, पर सँभल न सकती थी। यहाँ तक कि उसके पैरों में एक बड़ा-सा काटा चुभ गया। वह पैर पकड़कर बैठ गई। चलने की शक्ति न रही।

उसने बेहोशी के बाद होश में आने वाले मनुष्य के समान इधर-उधर चौंककर देखा। चारों ओर सन्नाटा था, गहरा अन्धकार छाया हुआ था, केवल सियार अपना राग अलाप रहे थे। यहाँ मैं अकेली हूँ, यह सोचकर सुमन के रोए खड़े हो गये। अकेलापन किसे कहते हैं, यह उसे आज मालूम हुआ। लेकिन यह जानते हुए भी कि यहाँ कोई नहीं है। मैं ही अकेली हूँ। उसे अपने चारों ओर नीचे ऊपर नाना प्रकार के जीव आकाश में चलते हुए दिखाई देते थे। यहाँ तक कि उसने घबड़ाकर आँखे बन्द कर लीं। निर्धनता कल्पना को अत्यंत रचनाशील बना देती है।

सुमन सोचने लगी, मैं कैसी अभागिनी हूँ। और तो और अपनी सगी बहन भी अब मेरी सूरत नहीं देखना चाहती। उसे कितना अपनाना चाहा, पर वह अपनी न हुई। मेरे सिर कलंक का टीका लग गया और वह अब धोने से नहीं धुल सकता। मैं उसको या किसी को दोष क्यों दूँ? यह सब मेरे कर्मों का फल है। आह! एड़ी में कैसी पीड़ा हो रही है। यह काँटा कैसे निकलेगा? भीतर उसका एक टुकड़ा टूट गया कैसा टपक रहा है। नहीं, मैं किसीको दोष नहीं दे सकती। बुरे कर्म तो मैंने किये, उनका फल कौन भोगेगा? विलास लालसा ने मेरी यह दुर्गति की। मैं कैसी आन्धि हो गई थी, केवल इन्द्रियों के सुखभोग के लिये अपनी आत्मा का नाश कर बैठी। मुझे कष्ट अवश्य था। मैं गहने को तरसती थी, अच्छे भोजन को तरसती थी, प्रेम को तरसती थी, उस समय मुझे अपना जीवन दुखमय दिखाई देता था, पर वह अवस्था भी तो मेरे पूर्व जन्म के कर्मो का ही फल था और क्या ऐसी स्त्रियाँ नहीं