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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२८८

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सेवासदन
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हैं जो उससे कही अधिक कष्ट झेलकर भी अपनी आत्मा की रक्षा करती है? दमयन्ती पर कैसे-कैसे दु:ख पड़े, सीता को रामचन्द्र ने घर से निकाल दिया और वह बरसो जंगलो में नाना प्रकार के क्लेष उठाती रही, सावित्री ने कैसे-कैसे दुःख सहे पर वह धर्म पर दृढ़ रही। उतनी, दूर क्यो जाऊँ-मेरे ही पड़ोस में कितनी स्त्रियाँ रो-रोकर दिन काट रही थी। अमोला में वह बेचारी अहिरिन कैसी विपित्ति झेल रही थी। उसका पति पर देश से बरसों न आता था, बेचारी उपवास करके पड़ी रहती थी। हाय, इसी सुन्दरता ने मेरी मिट्टी खराब की। मेरे सौन्दर्य के अभिमान ने मुझे यह दिन दिखाया।

हा प्रभो! तुम सुन्दरता देकर मन को चंचल क्यों बना देते हो? मैने सुन्दर स्त्रियों को प्राय: चंचल ही पाया। कदाचित् ईश्वर इस युक्ति से हमारी आत्मा की परीक्षा करते है, अथवा जीवन-मार्ग में सुन्दरतारूपी बाधा डालकर हमारी आत्मा को बलवान, पुष्ट बनाना चाहते है। सुन्दरतारूपी आग में आत्मा को डालकर उसे चमकाना चाहते है। पर हा! अज्ञानवश हमें कुछ नहीं सूझता, यह आग हमें जला डालती है, यह बाधा हमें विचलित कर देती है!

यह कैसे बन्द हो, न जाने किस चीज का काँटा था। जो कोई आके मुझे पकड़ ले तो यहाँ चिलाऊँगी तो कौन सुनेगा? कुछ नहीं, यह न विलास प्रेम का दोष हैं, न सुन्दरता का दोष है, यह सब मेरे अज्ञान का दोष है। भगवन्। मुझे ज्ञान दो। तुम्हीं अब मेरा उद्धार कर सकते हो। मैंने भूल की कि विधवाश्रम में गई। सदन के साथ रहकर भी मैंने भूल की। मनुष्यों से अपने उद्धार की आशा रखना व्यर्थ है। ये आप ही मेरी तरह अज्ञानता में पड़े हुए है। ये मेरा उद्धार क्या करेगे? मैं उसी की शरण में जाऊँगी। लेकिन कैसे जाऊँ? कौन-सा मार्ग हे, दो साल से धर्मग्रन्थों को पढ़ती हूँ, पर कुछ समझ में नहीं आता। ईश्वर, तुम्हें कैसे पाऊँ? मुझे इस अन्धकार से निकालो। तुम दिव्य हो, ज्ञानमय हो, तुम्हारे प्रकाश में संभव है यह अन्धकार विच्छिन्न हो जाय। यह पत्तियाँ