सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३४२ सेवासदन


क्यों खडखड़ा रही है? कोई जानवर तो नहीं आता! नहीं, कोई अवश्य आता है।

सुमन खड़ी हो गई, उसका चित्त दृढ था। वह निर्भय हो गई थी।

सुमन बहुत देर तक इन्ही विचारो में मग्न रही। इससे उसके हृदय को शान्ति न होती थी। आज तक उसने इस प्रकार कभी आत्म-विचार नहीं किया था। इस संकट में पड़कर उसकी सदिच्छा जाग्रत हो गई थी।

रात बीत चुकी थी। वसन्त की शीतल वायु चलने लगी। सुमन ने साड़ी समेट ली और घुटनो पर सिर रख लिया। उसे वह दिन याद आया, जब इसी ऋतु में, इसी समय, वह अपने पति के द्वारपर बैठी हुई सोच रही थी कि कहाँ जाऊँ? उस समय वह विलास की आग मे जल रही थी। आज भक्ति की शीतल छाया ने उसे आश्रय दिया था।

एकाएक उसकी आँखे झनक गई। उसने देखा कि स्वामी गजानन्द मृगचर्म धारण किये उसके सामने खड़े दयापूर्ण नेत्रो से उसकी ओर ताक रहे है। सुमन उनके चरणोंपर गिर पड़ी और दीन भावसे बोली, स्वामी। मेरा उद्धार कीजिये।

सुमन ने देखा कि स्वामी जी ने उसके सिरपर दया से हाथ फेरा और कहा, ईश्वरन मुझे इसीलिये तुम्हारे पास भेजा है, बोलो, क्या चाहती हो, धन?

सुमन-नहीं, महाराज, धन की इच्छा नहीं।

स्वामी-सम्मान?

सुमन-नहीं महाराज, सम्मान की भी इच्छा नहीं।

स्वामी-भोग-विलास?

सुमन-महाराज, इसका नाम न लीजिये, मुझे ज्ञान दीजिये।

स्वामी-अच्छा तो सुनो, सत्ययुग में मनुष्य की मुक्ति ज्ञान से होती थी, नेत्रों में सत्य से, द्वापर में भक्ति से, पर इस कलियुग में इसका केवल एक ही मार्ग है, और वह है सेवा। इमी मार्गपर चलो और तुम्हार उद्धार होगा। जो लोग तुमसे भी दीन, दुःखी, दलित है, उनकी शरण