सेवासदन | ३४९ |
विट्ठठलदासपर उनकी श्रद्धा दिनोंदिन बढ़ती जाती है। वह बहुत चाहते है कि महाशयजी को म्युनिसिपैलिटी में कोई अधिकार दे, पर विट्ठलदास राजी नहीं होते। वह नि़स्वार्थ कर्म की प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ना चाहते। उनका विचार है कि अधिकारी बनकर वह इतना हित नहीं कर सकते जितना पृथक् रहकर कर सकते है। उनका विधवाश्रम इन दिनों बहुत उन्नतिपर है और म्युनिसिपैलिटीसे उसे विशेष सहायता मिलती है। आजकल वह कृषको की सहायता के लिए एक कोष स्थापित करने का उद्योग कर रहे है जिससे किसानो को बीज और रुपये नाममात्र सूदपर उधार दिये जा सके। इस सत्कार्य में सदन बाबू विट्ठलदासका दाहिना हाथ बना हुआ है।
सदन का अपने गाँवमें मन नहीं लगा। वह शान्ता को वहाँ छोड़कर फिर गंगा किनारे के झोपड़े में आ गया है और उस व्यवसाय को खूब बढ़ा रहा है। उसके पास अब पाँच नावे है और सैकड़ो रुपये महीनेका लाभ हो रहा है। वह अब एक स्टीमर मोल लेनका विचार कर रहा है।
स्वामी गजानन्द अधिकतर देहातो में रहते है। उन्होने निर्धनों की कन्याओका उद्धार करनेके निमित्त अपना जीवन अर्पण कर दिया है। शहर में आते है तो दो-एक दिन से अधिक नही ठहरते।
कार्तिक का महीना था पद्मसिंह सुभद्रा को गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुरकी ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झाँकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इससन्नाटे में लोग कैसे रहते है? उनका मन कैसे लगता है? इतने में उसे एकसुन्दर भवन दिखाई पड़ा, जिसके फाटक़पर मोटे अक्षरोंमें लिखा था-