३४८ | सेवासदन |
गजानन्दने कहा, मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। परमात्मा तुम्हारा कल्याण करें ।
यह कहकर गजानन्द उठ खडे हुए। पी फट रही थी, पपीहे. ध्वनि सुनाई दे रही थी। उन्होने अपना कमण्डल उठाया और गंगा-स्नान करने चले गये।
सुमनने कुटीके बाहर निकलकर देखा, जैसे हम नीदसे जाग देखते है। समय कितना सुहावना है, कितना शन्तिमय कितना उत्साहपूर्ण। क्या उसका भविष्य भी ऐसा ही होगा? क्या उसके भविष्य जीवनका भी प्रभात होगा, उसमें भी कभी उपाकी झलक दिखा देमी, कभी सूर्यका प्रकाश होगा? हाँ, होगा और यह सुहावन शान्तिमय प्रभात आनेवाले दिनरूपी जीवनका प्रभात है।
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एक साल बीत गया। पण्डित मदनसिंह तहले तीर्थयात्रापर उधार खाए बैठे थे, जान पड़ता था सदनके घर आते ही वह एक दिन भी न ठहरेगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेगे, पर जबसे सदन आ गया है उन्होने भूलकर भी तीर्थयात्राका नाम नही लिया। पोतेको गोदमें लिए असामियोंका हिसाब करते है , खेतोकी निगरानी करते है। मायाने और भी जकड लिया है। हाँ, भामा अब कुछ निश्चित हो गई है। पड़ो-सिनोसे वार्तालाप करनेका कर्तव्य उसने अपने सिरसे नही हटाया। शेष कार्य उसने शान्तापर छोड दिये है।
पडिण्त पद्मसिंहने वकालत छोड़ दी। अब वह म्युनिसिपैलिटीके प्रधान कर्मचारी है। इस कामसे उन्हें बहुत रुचि है, शहर दिनोदिन उन्नति कर रहा है। सालके भीतर ही कई नई सडकें, नये बाग तैयार हो गए है । अब उनका इरादा है कि इवके और गाड़ीबालोके लिए शाहरके बाहर एक मुहल्ला बनवा दें। शर्माजीके कई पहलेके मित्र अब उनके विरोधी हो गए हैं और पहलेके कितने ही विरोधियोसे मेल हो गया किन्तु महाशय