वह अपने वेश्याभक्त मित्रो से सहमत हो गए। भोली बाई का मुजरा होगा, यह बात निश्चित हो गई।
इसके चार दिन पीछे होली आई। उसी रात को पद्मसिंह की बैठक ने नृत्यशाला का रूप धारण किया। सुन्दर रंगीन कालीनों पर मित्रवृन्द बैठे हुए थे और भोली बाई अपने समाजियो के साथ मध्य में बैठी हुई भाव बता-बताकर मधुर स्वर में गा रही थी। कमरा बिजली की दिव्य बत्तियो से ज्योतिर्मय हो रहा था। इत्र और गुलाब की सुगधि उड़ रही थी। हास्य-परिहास, आमोद-प्रमोद का बाजार गर्म था।
सुमन और सुभद्रा दोनों झरोखे मे चिककी आड़ से यह जलसा देख रही थी। सुभद्रा को भोली का गाना नीरस फीका मालूम होता था। उसको आश्चर्य मालूम होता था कि लोग इतने एकाग्रचित होकर क्या सुन रहे है? बहुत देर के बाद गत के शब्द उसकी समझ मे आये। शब्द अलकारो से दब गये थे। सुमन अधिक रसञा थी। वह गाने को समझती थी और ताल स्वर का ज्ञान रखती थी। गीत कान में आते ही उसके स्मरण पटपर अंकित हो जाते थे। भोलो बाई ने गाया---
ऐसी होली में आग लगे,
पिया विदेश में द्वारे ठाढी, धीरज कैसे रहे?
ऐसी होली में आग लगे,
सुमन ने भी इस पद को धीरे-धीरे गुनगुनाकर गाया और अपनी सफलता पर मुग्ध हो गई। केवल गिटकिरी न भर सकी। लेकिन उसका सारा ध्यान गानपर ही था। वह देखती थी कि सैकड़ो आंख भोली बाई की ओर लगी हुई है। उन नेत्रो से कितनी तृष्णा थी। कितनी विनम्रता, कितनी उत्सुकता! उनकी पुतलियाँ भोलो के एक-एक इशारे पर एक-एक भाव पर नाचती थी, चमकती थी। जिस पर उसकी दृष्टि पड़ जाती थी वह आनन्द से गद्गद् हो जाता और जिससे वह हंसकर दो एक बात कर लेती उसे तो मानो कुबेर का धन मिल जाता था। उस