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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/५४

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सेवासदन
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तो तलाक दे देती है। लेकिन हम सब वही पुरानी लकीर पीटे चली जा रही है।

सुमन ने सोचकर कहा, क्या करूँ बहन, लोकलाज का डर है, नही तो आराम से रहना किसे बुरा मालूम होता है?

भोली--यह सब उसी जिहालत का नतीजा है। मेरे माँ-बाप ने भी मुझे एक बड़े मियाँँ के गले बाँध दिया था। उसके यहाँँ दौलत थी और सब तरह का आराम था, लेकिन उसकी सूरत से मुझे नफरत थी। मैंने किसी तरह छः महीने तो काटे, आखिर निकल खडी़ हुई। जिन्दगी जैसी निआमत रो-रोकर दिन काटने के लिए नहीं दी गई है। जिन्दगी का कुछ मजा ही न मिला तो उससे फायदा ही क्या? पहले मुझे भी डर लगता था कि बड़ी बदनामी होगी, लोग मुझे जलील समझगे, लेकिन घर से निकलने की देर थी, फिर तो मेरा वह रंग जमा कि अच्छे-अच्छे खुशामद करने लगे। गाना मैने घर पर ही सीखा था, कुछ और सीख लिया, बस सारे शहर में धूम मच गई। आज यहाँ कौन रईस, कौन महाजन, कौन मौलवी, कौन पंडित ऐसा है जो मेरे तलुवे सहलाने में अपनी इज्जत न समझे? मन्दिर में, ठाकुर द्वारे में मेरे मुजरे होते है। लोग मिन्नते करके ले जाते है। इसे मैं अपनी बेइज्जती कैसे समझू? अभी एक आदमी भेज दू तो तुम्हारे कृष्णमन्दिर के महन्तजी दौड़े चले आवें। अगर कोई इसे बेइज्जती समझे तो समझा करे।

सुमन--भला यह गाना कितने दिन में आ जायगा?

भोली--तुम्हे छ: महीन मे आ जायगा! यहाँ गाने को कौन पूछता है, ध्रुपद और तिल्लाने की जरूरत ही नहीं। बस चलती हुई गजलों की धूम है, दो-चार ठुमरियाँ और कुछ थियेटर के गाने आ जायें और बस फिर तुम्ही तुम हो। यहाँ तो अच्छी सूरत और मजेदार बाते चाहिये, सो खुदा ने यह दोनों बात तुममे कूट-कूटकर भर दी है। मैं कसम खाकर कहती हूँ सुमन, तुम एक बार इस लोहे की जंजीर को तोड़ दो, फिर देखो लोग कैसे दीवानो की तरह दौड़ते है।