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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/५५

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सेवासदन
 


सुमन ने चिन्तित भाव से कहा, यही बुरा मालूम होता है कि....

भोली--हाँ हाँ कहो, यही कहना चाहती हो न कि ऐरे गैरे सब से बेशरमी करनी पड़ती है। शुरू में मुझे भी यही झिझक होती थी। मगर बाद को मालूम हुआ कि यह खयाल ही खयाल है। यहाँ ऐरे गैरो के आने की हिम्मत ही नही होती। यहाँ तो सिर्फ रईस लोग आते है। बस, उन्हें फंसाये रखना चाहिए। अगर शरीफ है तब तो तबीयत आप ही आप उससे मिल जाती है और बेशरमी का ध्यान भी नही होता, लेकिन अगर उससे अपनी तवीयत न मिले तो उसे बातो से लगाये रहो, जहाँ तक उसे नोचते-खसोटते बने, नोचे-खसोटो। आखिर को वह परेशान होकर खुद ही चला जायगा। उसके दूसरे भोई और आ फँसेगे। फिर पहले पहल तो झिझक होती ही है, क्या शोहर से नही होतो? जिस तरह धीरे-धीरे उसके साथ झिझक दूर होती जाती है, उसी तरह यहाँ होता है।

सुमन ने मुस्कराकर कहा, तुम मेरे लिए एक मकान तो ठीक कर दो।

भोली ने ताड़ लिया कि मछली चारा कुतरने लगी, अब शिस्त को कड़ा करने की जरूरत है। बोली, तुम्हारे लिये यही घर हाजिर है। आराम से रहो।

सुमन—तुम्हारे साथ न रहूंगी।

भोली--बदनाम हो जाओगी क्यो?

सुमन--(झेंपकर) नहीं, यह बात नही है।

भोली--खानदान की नाक कट जायगी?

सुमन--तुम तो हंसी उडा़ती हो।

भोली—-फिर क्या, पंडित गजाधर प्रसाद पाँडे नाराज हो जायेंगे?

सुमन—-अब में तुमसे क्या कहूँ?

सुमन के पास यद्यपि भोली का जवाब देने के लिए कोई दलील न थी, भोली ने उसकी शंकाओं का मजाक उडा़कर उन्हें पहले से ही निर्बल कर दिया था, यद्यपि अघर्म और दुराचार से मनुष्य को जो स्वाभाविक घृणा होती है वह उसके हृदय को डावाँडोल कर रही थी। वह इस समय