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सेवासदन
६५
 


गया। सदन ने जोरसे डाँटा, धत्। कुत्ता दुम दबाकर भागा। सदन कई पग उसके पीछे दौड़ा। भयकी चरम सीमा ही साहस है। सदन को विश्वास हो गया, कुत्ता था, भूत होता तो अवश्य कोई न कोई लीला करता। भय कम हुआ, किन्तु वह वहां से भागा नहीं। वह अपने भीरु हृदय को लज्जित करने के लिए कई मिनट तक पीपलके नीचे खड़ा रहा। इतना ही नहीं उसने पीपलकी परिक्रमा की और उसे दोनों हाथो से बलपूर्वक हिलाने की चेष्टा की। यह विचित्र साहस था। ऊपर पत्थर, नीचे पानी, एक जरा-सी आवाज, एक जरा-सी पत्तीकी खड़कन उसके जीवन का निपटारा कर सकती थी। इस परीक्षा से निकलकर सदन अभिमानसे सिर उठाए आगे बढ़ा।


१३

सुमन के चले जानेके बाद पद्मसिंहके हृदयमें एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई। मैंने अच्छा नही किया। न मालूम वह कहाँ गई। अपने घर चली गई हो तो पूछना ही क्या, किन्तु वहाँ वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कही कुली डिपो वालो के जालमे फंस गई तो फिर छूटना मुश्किल है। यह दुष्ट ऐसे ही अवसर पर अपना बाण चलाते है, कौन जाने कही उनसे भी घोर तर दुष्टाचारियों के हाथ में न पड़ जाय। साहसी पुरुष को कोई सहारा नही होता तो वह चोरी करता है, कायर पुरुषको कोई सहारा नही होता तो वह भीख माँगता है, लेकिन स्त्रीको कोई सहारा नही होता तो वह लज्जाहीन हो जाती है। युवती का घर से निकलना मुँह से बात का निकलना है। मुझसे वही भूल हुई, अब इस मर्यादा पालन से काम न चलेगा। वह डूब रही होगी, उसे बचाना चाहिए।

वह गजाधर के घर जाने के लिए कपड़े पहनने लगे। तैयार होकर घर से निकले। किन्तु यह सशय लगा हुआ था कि कोई मुझे उसके दरवाजेपर देख न ले। मालूम नहीं, गजाधर अपने मन मे क्या समझे। कही उलझ पड़ा तो मुश्किल होगी। घर से बाहर निकल चुके थे, लौट पड़े और कपड़े उतार दिये।