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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/६४

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सेवासदन
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चले। किन्तु जहाँ गये साफ जवाब मिला 'स्थान नहीं है'। शहर में बारह पाठशालाएँ थी, लेकिन सदन के लिए कही स्थान न था।

शर्माजी ने विवश होकर निश्चय किया कि मै स्वयं पढ़ाऊँगा। प्रातः काल तो मुवक्किल के मारे अवकाश नहीं मिलता। कचहरी से आकर पढ़ाते किन्तु एक ही सप्ताह में हिम्मत हार बैठे। कहाँ कचहरी से आकर पत्र पढ़ते थे, कभी हारमोनियम बजाते, कहाँ अब एक बूढे तोते को रटाना पड़ता था। वह बारम्बार झुझलाते, उन्हें मालूम होता कि सदन मन्दबुद्धि है। यदि वह कोई पढ़ा हुआ शब्द पूछ बैठता तो शर्मा जी झल्ला पड़ते। वह स्थान उलट-पलट कर दिखाते, जहाँ वह शब्द प्रथम आया था। फिर प्रश्न करते और सदन ही से उस शब्दका अर्थ निकलवाते। इस उद्योग में काम कम होता था किन्तु उलझन बहुत थी। सदन भी सामने पुस्तक खोलते हुए डरता। वह पछताता कि कहाँ से कहाँ यहाँ आया, इससे तो गॉव ही अच्छा था। चार पक्तियाँ पढायगे, लेकिन घण्टों बिगड़ेगे। पढ़ा चुकने के बाद शर्माजी कुछ थकसे जाते। सैर करने को भी जी नही चाहता। उन्हें विश्वास हो गया कि इस काम की क्षमता मुझमें नहीं है।

मुहल्ले में एक मास्टर साहब रहते थे। उन्होने २०) मासिक पर सदन को पढाना स्वीकार किया। अब यह चिन्ता हुई कि यह रुपये आवें कहाँ से? शर्माजी फैशनेबुल मनुष्य थे, खर्च का पल्ला सदा दबा ही रहता था। फैशन का बोझ अखरता तो अवश्य था, किन्तु उसके सामने कन्धा न डालते थे। बहुत देर तक एकान्त में बेठे सोचते रहे, किन्तु बुद्धि ने कुछ काम न किया, तव सुभद्रा के पास जाकर बोले, मास्टर २०) पर राजी है।

सुभद्रा-तो क्या मास्टर ही न मिलते थे? मास्टर तो एक नहीं सौ है, रुपये कहाँ है?

शर्मा-रुपये भी ईश्वर कही से देगे ही।

सुभद्रा-मै तो कई साल से देख रही हूँ, ईश्वर ने कभी विशेषकृपा नहीं की। बस इतना दे देते है कि पेट की रोटियाँ चल जायँ, वही तो ईश्वर है!