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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/६५

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सेवासदन
 


अपने हाथों से उस के जूते साफ करने पड़े तब भी मुझे इन्कार न होगा; नहीं तो मुझ जैसा कृतध्न मनुष्य संसार में न होगा।

ग्लानि से सुभद्रा का मुखकमल कुम्हला गया। यद्यपि शर्माजी ने वे बातें सच्चे दिल से कही थी, पर उसने समझा कि यह मुझे लज्जित करने के निमित्त कही गई है। सिर नीचा कर बोली, तो मैने यह कब कहा कि सदन के लिए मास्टर न रखा जाय? जो काम करना ही है उसे करा डालिये। जो कुछ होगा देखा जायेगा। जब दादाजी ने आपके लिए इतने कष्ट उठाए है तो यही उचित है कि आप भी सदन के लिए कोई बात उठा न रखे मुझसे जो कुछ करने को कहिए वह करूँ। आपने अबतक कभी इस विषय पर जोर नहीं दिया था, इसलिए मुझे भ्रम हुआ कि यह कोई आवश्यक खर्च नही है। आपको पहले हो दिनसे मास्टरका प्रबन्ध करना चाहिए था। इतने आगे-पीछे का क्या काम था? अबतक तो यह थोड़ा बहुत बढ़ भी चुका होता। इतनी उम्र गंवाने के बाद जब पढ़ने का विचार किया है तो उसका एक दिन भी व्यर्थ न जाना चाहिए।

सुभद्रा ने तत्क्षण अपनी लज्जा का बदला ले लिया। पंडितजी को अपनी मूल स्वीकार करनी पड़ी। यदि अपना पुत्र होता तो उन्होंने कदापि इतना सोचविचार न किया होता।

सुभद्रा को अपने प्रतिवाद पर खेद हुआ। उसने एक पान बनाकर शर्माजी को दिया। यह मानो सन्धिपत्र था। शर्माजी ने पान ले लिया, सन्धि स्वीकृत हो गई।

जब वह चलने लगे तो सुभद्रा ने पूछा, कुछ सुमन का पता चला?

शर्माजी-कुछ भी नहीं, न जाने कहाँ गायब हो गई, गजाधर भी नही दिखाई दिया। सुनता हूं। घर-बार छोड़ कर किसी तरफ निकल गया है।

दूसरे दिनसे मास्टर साहब सदन को पढ़ाने लगे। नौ बजे वह पढ़ाकर चले जाते तब सदन स्नान भोजन करके सोता। अकेले उसका जी बहुत घबराता, कोई संगी न साथी, न कोई हंसी न दिल्लगी, कैसे जी लगें।