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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/६८

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सेवासदन
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जब हमको मेहनताना देना है तो क्या यही एक वकील है? गली-गली तो मारे-मारे फिरते है। इससे शर्माजी की आमदनी दिन प्रतिदिन कम होती जाती थी। यह प्रस्ताव सुनकर चिन्तित स्वर से बोले, अगर इसी घोड़े पर जीन खिंचा लो तो कैसा हो? दो-चार दिन में निकल जायगा।

सदन—जी नही, बहुत दुर्बल है, सवारी में न ठहरेगा। कोई चाल भी तो नही, न कदम, न सरपट। कचहरी से थका माँदा आयेगा तो क्या चलेगा?

शर्मा—अच्छा, तलाश करूंगा, कोई जानवर मिला तो ले लूँगा। शर्माजी ने चाहा कि इस तरह बात टाल दूँ। मामूली घोड़ा भी ढाई तीन सौ से कम न मिलेगा, उसपर कमसे कम २५) मासिक का खर्च अलग। इस समय वे इतना खर्च उठाने मे समर्थ न थे, किन्तु सदन कब मानने वाला था। नित्यप्रति उनसे तकाजा करता, यहॉ तक कि दिन में कई बेर टोंकने की नौबत पहुँची। शर्माजी उसकी सूरत देखते ही सूख जाते। यदि उससे अपनी आर्थिक दशा साफ-साफ कह देते तो सदन चुप हो जाता, लेकिन अपनी चिन्ताओं की राम कहानी सुनाकर वह उसे कष्टमें नही डालना चाहते थे।

सदन ने अपने दोनो साईसोसे कह रक्खा था कि कही घोड़ा बिकाऊ हो तो हमसे कहना। साईसों ने दलाली के लोभसे दत्तचित होकर तलाश की। घोड़ा मिल गया। डिगवी नाम के एक साहब विलायत जा रहे थे। उनका घोड़ा बिकनेवाला था। सदन खुद गया, घोडे को देखा, उसपर सवार हुआ, चाल देखी। मोहित हो गया। शर्माजी से आकर कहा, चलिये घोड़ा देख लीजिये मुझे बहुत पसन्द है। शर्माजी को अब भागने का कोई रास्ता न रहा, जाकर घोड़े को देखा, डिगबी साहब से मिले, दाम पूछे। उन्होने ४००) माँगे, इससे कौड़ी कम नही।

अब इतने रुपये कहाँ से आवें। घर में अगर सौ-दो-सौ रुपये थे तो वह सुभद्रा के पास थे और सुभद्रा से इस विषयमे शर्माजी को सहानुभूति की लेशमात्र भी आशा न थी। उपकारी बैंक के मैनेजर बाबू चारुचन्द्र से उनकी