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सेवासदन
७९
 

कहाँ आवेंगे और कहाँ जायेंगे। लड़के का मन तो रह जायगा। उसी भाई का बेटा है जिसने आपको पाल पोसकर आज इस योग्य बनाया।

शर्माजी इस व्यंग के लिए तैयार थे। इसीलिए उन्ही ने सदन की शिकायत करके यह बात छोड़ी थी। किन्तु वास्तव में उन्हे सदन का यह व्यसन उतना दुखजनक नही मालूम होता था जितनी अपनी दारुण धनहीनता। सुभद्रा की अनुमति प्राप्त करने के लिए उसके हृदय में पैठना जरूरी था। बोले, चाहे जो कुछ हो, मुझे तो तुमसे कहते हुए डर लगता था। मन की बात कहता हूँ। लडकों का खाना-खेलना सबको अच्छा लगता है, पर घर में पूजी हो तब। दिनभर से इसी फिक्र में पडा हुआ हूँ| कुछ बुद्धि काम नहीं करती। सबेरे डिगवी साहब का आदमी आवेगा उसे क्या उत्तर दूंगा? बीमार भी पड जाता तो एक बहाना मिल जाता।

सुभद्रा—तो यह कौन मुश्किल बात है। सवेरे चादर ओढ़कर लेट रहियेगा, मैं कह दूंगी कि आज तबीयत अच्छी नहीं है।

शर्माजी हँसी को रोक न सके। इस व्यंग में कितनी निर्दयता कितनी विरक्ति थी। बोले, अच्छा मान लिया कि आदमी कल लौट गया, लेकिन परसों तो डिगवी साहब जानेवाले ही है, कल कोई न कोई फिक्र करनी ही पड़ेगी।

सुभद्रा—तो वही फिक्र आज क्यों नही कर डालते।

शर्मा—भाई, चिढाओ मत, अगर मेरी बुद्धि काम करती तो तुम्हारी शरण क्यों आता? चुपचाप काम न कर डालता? जब कुछ नहीं बन पड़ा है तब तुम्हारे पास आया हूँ। बताओ क्या करूँ?

सुभद्रा—मै क्या बताऊँ? आपने तो वकालत पढ़ी है, मैं तो मिडिल तक भी नहीं पढ़ी, मेरी बुद्धि यहाँ क्या काम देगी? इतना जानती हूँ कि घोड़े का द्वार पर हिनहिनाते सुनकर बैरियों की छाती धड़क जायगी जिस वक्त आप सदन को उसपर बैठे देखेंगे, तो आंखे तृप्त हो जायेंगी।

शर्मा—वही तो पूछता हूँ कि यह अभिलाषाएँ कैसे पूरी हों?