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सेवासदन
 

सुभद्रा—ईश्वर पर भरोसा रखिए, वह कोई-न-कोई जुगुत निकालेगा ही।

शर्मा—तुम तो ताने देने लगी।

सुभद्रा—इसके सिवा मेरे पास और है ही क्या? अगर आप समझते हों कि मेरे पास रुपये होंगे तो यह आपकी भूल है। मुझे हेर-फेर करना नही आाता सन्दूक की चाबी लीजिये, सौ सवा सौ रुपये पड़े हुए है, निकाल ले जाइये। बाकी के लिए और कोई फिक्र कीजिये। आपके कितने ही मित्र है, क्या दो-चार सौ रुपये का प्रबन्ध नही कर देगे।

यद्यपि पद्मसिंह यही उत्तर पाने की आशा रखते थे, पर इसे कानो से सुनकर वह अघोर हो गये। गाँठ जरा भी हलकी न पड़ी। चुपचाप आकाश की ओर ताकने लगे जैसे कोई अथाह जल में बहा जाता हो।

सुभद्रा सन्दुक की चाबी देने को तैयार तो थी, लेकिन सन्दूकमें १००) की जगह पूरे ५००) बटुए में रक्खे हुए थे। यह सुभद्रा की दो सालकी कमाई थी। इन रुपयों को देख-देख सुभद्रा फूली न समाती थी। कभी सोचती, अबकी घर चलूँगी तो भाभी के लिए अच्छा सा कगन लेती चलूगी और गाँव की सब कन्याओंके लिए एक-एक साडी। कभी सोचती, यही कोई काम पड़ जाय और शर्माजी रुपये लिए परेशान हो तो मैं चट निकालकर दे दगी। वह कैसे प्रसन्न होगे! चकित हो जायेंगे। साघारणतः युवतियो के हृदय में ऐसे उदार भाव नही उठा करते। वह रुपये जमा करती है अपने गहनो के लिए। लेकिन सुभद्रा बढे घरकी बेटी थी, गहनो से मन भरा हुआ था।

उसे रुपयों का जरा भी लोभ न था। हाँ, एक ऐसे अनावश्यक कार्यलिए उन्हें निकालने में कष्ट होता था, पर पण्डितजी की रोनी सूरत देखकर उसे दया आ गई वोली, आपने बैठे-बिठाये यह चिन्ता अपने सिर ली। सीधी-सी तो बात थी। कह देते, भाई अभी रुपये नही है, तब तक किसी तरह काम चलाओ। इस तरह मन बढाना कौन सी अच्छी बात है? आज घोड़े की जिद है, कल मोटरकार की घुन होगी, तब क्या कीजियेगा? माना कि दादाजी ने आपके साथ बड़े अच्छे सलूक किये है,