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सेवासदन
 

विट्ठलदास-यह तो मुश्किल है।

सुमन-तो क्या आप मुझसे चक्की पिसाना चाहते है? मैं ऐसी सन्तोषी नही हूँ।

विट्ठलदास (झेंपकर) विधवाश्रम में रहना चाहो तो उसका प्रबन्ध कर दिया जाय।

सुमन-(सोचकर) मुझे यह भी मंजूर है, पर वहां ने स्त्रियों को अपने सम्बन्ध में कानाफूसी करते देखा तो पलभर न ठहरूंगी।

विट्ठलदास-यह टेढ़ी शर्त है, मैं किस किसकी जबान को रोकूँगा। लेकिन मेरी समझमें सभा वाले तुम्हे लेने पर राजी भी न होगे।

सुमन ने तान से कहा, तो जब आपकी हिन्दू जाति इतनी ह्दयशून्य है। तो उसकी मर्यादा पालन के लिए क्यों कष्ट भोगूँ, क्यों जान दूँ। जब आप मुझे अपनाने के लिए जाति को प्रेरित नहीं कर सकते, तब जाति आप ही लज्जाहीन है तो मेरा क्या दोष है। मैं आपसे केवल एक प्रस्ताव और करूंगी और यदि आप उसे भी पूरा न कर सकेंगे तो फिर मैं आपको और कष्ट न दूंगी। आप पं पद्मसिंह को एक घंटे के लिए मेरे पास बुला लाइये, में उनसे एकान्त में कुछ कहना चाहती हूं। उसी घड़ी में यहां से चली जाऊंगी। मैं केवल यह देखना चाहती हूं कि जिन्हें आप जाति के नेता कहते हैं, उनकी दृष्टि में मेरे पश्चाताप का कितना मूल्य है। विट्ठलदास खुश होकर बोले, हाँ, यह में कर सकता हूँ, बोलो किस दिन?

सुमन--जब आपका जी चाहें।

विठ्ठलदास-फिर तो न जाओगी?

सुमन—अभी इतनी नीच नही हुई हूँ?

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महाशय विठ्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हे कोई सम्पत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुँह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से