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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/७८

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सेवासदन
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विट्ठल—यह भी तुम्हारी भूल है। तुम यहाँ चाहे और किसी की गुलाम न हो, पर अपनी इन्द्रियों की गुलाम तो हो? इन्द्रियों की गुलामी उस पराधीनता से कही दु़:खदायिनी होती है। यहाँ तुम्हें न सुख मिलेगा, न आदर। हाँ, कुछ दिनों भोग विलास कर लोगी, पर अन्त में इससे भी हाथ धोना पड़ेगा। सोचो तो, थोडे दिनों तक इन्द्रियों को सुख देने के लिए तुम अपनी आत्मा और समाज पर कितना बड़ा अन्याय कर रही हो?

सुमन ने आजतक किसी से ऐसी बात न सुनी थी। वह इन्द्रियों के सुख को अपने आदर को जीवन का मुख्य उद्देश्य समझती आई थी उसे आज मालूम हुआ कि सुख सन्तोष से प्राप्त होता है और आदर सेवा से।

उसने कहा, मैं सुख और आदर दोनों ही को छोड़ती हूँ, पर जीवन-निर्वाह का तो कुछ उपाय करना पडेगा?

विट्ठलदास—अगर ईश्वर तुम्हे सुबुद्धि दे तो सामान्य रीति से जीवन-निर्वाह करने के लिए तुम्हे दालमण्डी में बैठने की जरूरत नही है। तुम्हारे जीवन-निर्वाह का केवल यही एक उपाय नही है। ऐसे कितने धन्धे है जो तुम अपने घर में बैठी हुई कर सकती हो।

सुमन का मन अब कोई बहाना न ढूँढ सका। विट्ठलदास के सदुत्साह ने उसे वशीभूत कर लिया। सच्चे आदमी को हम धोखा नही दे सकते। उंसकी सच्चाई हमारे हृदय में उच्च भावों को जागृत कर देती है। उसने कहा, मुझे यहाँ बैठते स्वतः लज्जा आती है। बताइये, आप मेरे लिए क्या प्रबन्ध कर सकते है? मै गाने में निपुण हूँँ। गाना सिखाने का काम कर सकती हूँ।

विट्ठलदास-ऐसी तो यहाँ कोई पाठशाला नहीं है।

सुमन-मैने कुछ विद्या भी पढ़ी है, कन्याओं को अच्छी तरह पढ़ा सकती हूँ।

विट्ठलदासने चिन्तित भाव से उत्तर दिया, कन्या पाठशालाएँ तो कई हैं, पर तुम्हें लोग स्वीकार करेंगे, इसमे सन्देह है।

सुमन-तो फिर आप मुझसे क्या करने को कहते है? कोई ऐसा हिन्दू जातिका प्रेमी है जो मेरे गुजारे के लिए ५०) मासिक देने पर राजी हो?