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सेवासदन
 


सुशील थी। सुमन दूसरो से बढ़ कर रहना चाहती थी। यदि बाजार से दोनों बहनों के लिए एक ही प्रकार की साड़ियां आती तो सुमन मुंह फुला लेती थी। शान्ता को जो कुछ मिल जाता उसीमें प्रसन्न रहती।

गंगाजली पुराने विचार के अनुसार लड़कियों के ऋण से शीघ्र ही मुक्त होना चाहती थी। पर दारोगा जी कहते, यह अभी विवाह योग्य नही है। शास्त्रो मे लिखा है कि कन्या का विवाह सोलह वर्ष की आयु से पहले करना पाप है। वह इस प्रकार मन को समझाकर टालते रहते थे। समाचार पत्रों में जब वह दहेज के विरोध में बड़े बड़े लेख पढ़ते तो बहुत प्रसन्न होते। गंगाजली से कहते कि अब एक ही दो साल में यह कुरीति मिटी जाती है। चिन्ता करने की कोई जरुरत नही। यहा तक कि इसी तरह सुमन को सोलहवां वर्ष लग गया।

अब कृष्णचन्द्र अपने को अधिक धोखा न दे सके। उनकी पूर्व निश्चिन्तता वैसी न थी जो अपनी सामर्थ्य के ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसका मूल कारण उनकी अकर्मण्यता थी। उस पथिक की भाति जो दिन भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के बाद सन्ध्या को उठे और सामने एक ऊँचा पहाड़ देख कर हिम्मत हार बैठे, दारोगा जी भी घबरा गये। वर की खोजमें दौडने लगे, कई जगहों से टिप्पणियाँ मँगवाई। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरो मे लेन देन की चर्चा न होगी, पर उन्हे यह देख कर बडा आश्चर्य हुआ कि वरो का मोल उनकी शिक्षा के अनुसार है। राशि वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेनदेन की बातें होने लगती तब कृष्णचन्द्र की आंखो के सामने अँधेरा छा जाता था। कोई चार हजार सुनाता, कोई पांच हजार और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते। आज छ: महीने से दरोगा जो इसी चिन्ता में पड़े हैं। बुद्धि काम नही करती। इसमे सन्देह नही कि शिक्षित सज्जनो को उनसे सहानुभूति थी; पर वह एक-न-एक ऐसी पख निकाल देते थे कि दारोगा जी को निरुत्तर हो जाना पड़ता। एक सज्जन ने कहा, महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी