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सेवासदन
 


रोक सके। यथा में वह सुमन की रक्षा करना चाहते थे, लेकिन गुप्तरीति से। बोले, उसकी और भी तो शर्त है?

विठ्ठल—जो हाँ, है तो, लकिन आपमें उन्हे पूरा करने की सामर्थ्य है? वह गुजारे लिये ५० मासिक मॉगती है, आप दे सकते है?

शर्माजी-५०) नही, लेकिन २०) देने को तैयार हूँ।

विठ्ठल-शर्माजी बातें न बनाइये। एक जरा सा कष्ट तो आपसे उठाया नही जाता, आप २० मासिक देगे!

शर्माजी—मैं आपको वचन देता हूँ कि २०) मासिक दिया करेगा और अगर मेरी आमदनी कुछ भी बढ़ी तो पूरी रकम दे दूंगा। हां, इस समय विवश हैं। यह २०) भी घोडागाड़ी बेचने से बच सकेंगे मालूम नही क्यों इन दिनों मेरा बाजार गिरा जा रहा है।

विट्ठल—अच्छा, आपने २०) दे ही दिये तो शेष कहाँ से आयेंगे? औरों का तो हाल आप जानते ही है, विधवाश्रमके चन्दे ही कठिनाईसे वसूल होते है। में जाता हूँ यथाशक्ति उद्योग करेगा, लेकिन यदि कार्य सिद्ध न हुआ तो उसका दोप आपके सिर पड़ेगा।

१७

सन्ध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छजो और खिड़कियो की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहीं आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न किसी बहाने जरा देर के लिए अवश्य ठहर जाता है। इस नव-कुसुम ने उसकी प्रेमलाल सा को ऐसा उत्तेजित कर दिया है कि अब उसे किसी पल चैन नही पड़ता। उसके रूप-लावण्य में एक प्रकार की मनोहारिणी सरलता है जो उसके हृदय को बलात्अ पनी ओर खींचती है। वह इस सरल सौंदर्यमूर्ति को अपना प्रेम अर्पण करने का परम अभिलाषी है, लेकिन उसे इसका कोई अवसर नही मिलता, सुमन के यहाँ रसिकों का नित्य जमघट रहता है। सदन को यह भय होता कि इनमे कोई चचा की जान-पहचान का मनुष्य न हो। इसलिये उसे ऊपर