इसके बाद डॉक्टर साहब अपने मुवक्किलो से बाते करने लगे; विट्ठलदास आध घंटे तक बैठे रहे, अन्त में अधीर होकर बोले, तो मुझे क्या आज्ञा होती है?
श्यामाचरण-आप इतमीनान रक्खे, अबकी कौसिलकी बैठक मे मैं गवर्नमेंट का ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित करूँगा।
विट्ठलदास के जी में आया कि डाक्टर साहब को आडे हाथो लूँ, किन्तु कुछ सोचकर चुप रह गये। फिर किसी बड़े आदमी के पास जाने का सहस न हुआ। लेकिन उस कर्मवीर ने उधोग से मुँह नहीं मोडा़। नित्य किसी सज्जन के पास जाते और उससे सहायता की याचना करते। यह उधोग सर्वथा निष्फल तो नहीं हुआ। उन्हे कई सौ रुपये के वचन और कई सौ रुपये नकद मिल गये, लेकिन ३०) मासिक की जो कमी थी वह इतने धन से क्या पूरी होती? तीन महीने की दौड़-धूप के बाद वह बडे़ मुश्किल से १०) मासिक का प्रबंध करने मे सफल हो सके।
अन्त मे जब उन्हें अधिक सहायता की कोई आशा न रही तो वह एक दिन प्रातःकाल सुमनवाई के पास गये। वह इन्हे देखते ही कुछ अनमनी-सी होकर बोली, कहिये महाशय, कैसे कृपा की?
विट्ठल--तुम्हे अपना वचन याद है?
सुमन--इतने दिनो की बाते अगर मुझे भूल जायें तो मेरा दोष नहीं।
विट्ठल--मैने तो बहुत चाहा कि शीघ्र ही प्रबन्ध हो जाय, लेकिन ऐसी जाति से पाला पडा़ है। जिसमें जातियता का सर्वथा लोप हो गया है। तिसपर भी मेरा उधोग बिलकुल व्यर्थ नहीं हुआ। मैने ३०) मासिकका प्रबन्ध कर लिया है और आशा है कि और जो कसर है वह भी पूरी हो जायगी। अब तुम से मेरी यह प्रार्थना है कि इसे स्वीकार करो और आज ही नरककुण्ड को छोड़ो दो।
सुमन-- शर्माजी को आप नहीं ला सके क्या?