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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/९३

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सेवासदन
 


बिट्ठल-यह किसी तरह जाने पर राजी न हुए। इस ३० में २० मासिक का वचन उन्होंने दिया है। सुमन ने विस्मित होकर कहा अच्छा! वह तो बड़े उदार व्यक्ति निकले। सेठों से भी कुछ मदद मिली?

बिट्ठल—सेठों की बात न पूछों। चिम्मनलाल रामलीला के लिये हजार दो हजार रुपये खुशी से दे देंगे। बलभद्र से अफसरों की बधाई के लिये इससे भी अधिक मिल सकता है, लेकिन इस विषय में उन्होंने कोरा जवाब दिया।

सुमन इस समय सदन के प्रेमजाल में फंसी हुई थी। प्रेम का आंनन्द उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ था, इस दुर्लभ रत्न को पाकर वह उसे हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी। यद्यपि वह जानती थी कि इस प्रेम का परिणाम वियोग के सिवा और कुछ नहीं हो सकता था लेकिन उसका मन कहता था कि जब तक यह आंनन्द मिलता है तब तक उसे क्यों न भोगूँ। आगे चलकर न जाने क्या होगा, जीवन की नाव न जाने किस-किस भंवर में पड़ेगी, न जाने कहाँ-कहाँ भटकेगी। भावी चिंताओ को वह अपने पास न आने देती थी। क्योंकि उधर भयंकर अंधकार के सिवा और कुछ न सूझता था। अतएव जीवन के सुधार का वह उत्साह, जिसके वशीभूत होकर उसने विट्ठलदास से वह प्रस्ताव किये थे, क्षीण हो गया था। इस समय अगर विट्ठलदास १०० मासिक को लोभ दिखाते तो भी वह खुश न होती, किन्तु एक बार जो बात खुद ही उठाई थी उससे फिरते हुए शर्म आती थी। बोली, में इसका जवाब आपको कल दूँगी। अभी कुछ सोचने दीजिये।

विट्ठल-इसमें क्या सोचना समझना है?

सुमन-कुछ नही, लेकिन कल ही पर रखिये।

रात के दस बज गये थे। शरद ऋतु की सुनहरी चाँदनी छिपी हुई थी। सुमन खिड़की से नीलवर्ण आकाश की ओर ताक रही थी। जैसे चांदनी के प्रकाश में तारागण की ज्योति मलीन पड़ गई थी, उसी प्रकार उसके हृदय से चन्द्ररूपी सुविचार ने विकाररू़पी तारागण को ज्योतिहीन कर दिया था।