सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सेवासदन.djvu/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
११४
सेवासदन
 


खुला देखकर इस कारागार में उसे क्षण भर भी ठहरना असहय हो रहा था। जिस तरह अवसर पाकर मनुष्य की पाप चेप्टा जागृत हो जाती है, उसी प्रकार अक्सर पाकर उसकी धर्मचेष्टा भी जागृत हो जाती है। रात के तीन बजे थे। सुमन अभी तक करवटे बदल रही थी, उसका मन वलात् सदन की ओर खिंचता था। ज्यो-ज्यो प्रभात निकट आता था, उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। वह अपने मन को समझा रही थी। तू इस प्रेम पर फूला हुआ है? क्या तुझे मालूम नही कि इसका आधार केवल रंग रूप है! यह प्रेम नही है, प्रेम की लालसा है। यहाँ कोई सच्चा प्रेम करने नहीं आता। जिस भाँति मन्दिर मे कोई सच्ची उपासना करने नही जाता, उसी प्रकार उस मंण्डी मे कोई प्रेम का सौदा करने नही आता, सब लोग केवल मन बहलाने के लिये आते है। इस प्रेम के भ्रम मे मत पड़। अरुणोदय के समय सुमन को नींद आ गयी।

२२

शाम हो गई। सुमन ने दिन भर विट्ठलदासकी राह देखी, लेकिन वह अब तक नही आये। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएँ उठ रही थीं वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नही आवेगे, अवश्य कोई विध्न पड़ा। या तो वे किसी दूसरे काम में फंस गये या जिन लोगों ने सहायता का वचन दिया था पलट गये। मगर कुछ भी हो एक बार विट्ठलदास को यहाँ आना चाहिये था मुझे मालूम तो हो जाता कि क्या निश्चय हुआ। अगर कोई मेरी सहायता न करता, न करे, मैं अपनी मदद आप कर लूँगी, केवल एक सज्जन पुरुष की आड़ चाहिये। क्या विट्ठलदास से इतना भी नही होगा। चलूँ, उनसे मिलूँ और कह दूँ कि मुझे आर्थिक सहायता की इच्छा नही है, आप इसके लिये हैरान न हों, केवल मेरे रहने का प्रबंध कर दे और मुझे कोई काम बता दें, जिससे मुझे सूखी रोटियाँ मिल जाया करे, मैं और कुछ नही चाहती। लेकिन मालूम नही, वह कहां रहते है, वे पते-ठिकाने कहाँ कहाँ भटकती फिरूंगी।