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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/९६

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सेवासदन
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उत्कंठा हो रही थी कि किसी तरह सवेरा हो जाय और विट्ठलदास आ जाये, किसी तरह यहाँ से निकल भागूँ। आधी रात बीत गई और उसे नींद न आई। धीरे धीरे उसे शंका होने लगी कि कही सबेरे विट्ठलदास न आये तो क्या होगा? क्या मुझे फिर यहाँ प्रात:काल से संध्या तक मीरासियों और धाड़ियों की चापलूसियाँ सुननी पड़ेगी। फिर पापरजोलिप्त पुतलियों का आदर सम्मान करना पड़ेगा? सुमन को यहाँ रहते हुए अभी छः मास भी पूरे नहीं हुए थे लेकिन इतने ही दिनों में उसे यहाँ का पूरा अनुभव हो गया था। उसके यहाँ सारे दिन मीरासियों का जमघट रहता था। वह अपने दुराचार, छल और क्षुद्रता की कथाएँ बड़े गर्व से कहते, उनमें कोई चतुर गिरहकट था, कोई धूर्त ताश खेलने वाला, कोई टपके की विद्या में निपुण कोई दीवार फांदने के फनका उस्ताद और सबके सब अपने दुस्साहस और दुर्बलता पर फूले हुए। पड़ोस को रमणियाँ भी नित्य आती थी, रंगी, बनी ठनी, दीपक के समान जगमगाती हुई किन्तु यह स्वर्णपात्र थे हलाहल से भरे हुए पात्र उन में कितना छिछोरापन था! कितना छल! कितनी कुवासना! वह अपनी निर्लज्जता और कुकर्मों के वृत्तांत कितने मजे ले लेकर कहती। उनमें लज्जा का अंश भी न रहा था। सब ठगने की, छलने की धुन में मन सदैव पापतृष्णा में लिप्त। शहर में जो लोग सच्चिरित्र थे उन्हें यहाँ खूब गालियाँ हो जाती थी, उनकी खूब हंसी उड़ाई जाती थी, बुध्दू गोखा आदि की पदवियाँ दी जाती थी। दिनभर सारे शहर की चोरी और डाके, हत्या और व्यभिचार, गर्भपात और विश्वासघात की घटनाओं की चर्चा रहती। यहाँ का आदर और प्रेम अब अपने यथार्य रूप में दिखाई देता था। यह प्रेम नहीं था, आदर नही था, केवल कामलिप्सा थी। अबतक सुमन धैर्य के साथ यह सारी विपत्तियाँ के झेलती थी, उसने समझ लिया था कि अब इसी नरक कुण्ड में जीवन व्यतीत करना है तो इन बातो से कहाँ तक भागूँ। नरक में पड़कर नारकीय धर्म का पालन करना अनिवार्य था। पहली बार विट्ठलदास जब उसके पास आये थे तो उसने मन में उनकी उपेक्षा की थी, उस समय तक उसे यह रंग ढंग का ज्ञान न था। लेकिन आज मुक्ति का द्वार सामने