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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/९९

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सेवासदन
 


पहचाना। एक बार उसकी ओर दबी आँखों से देखा, फिर जैसे हाथ पाँव फूल गये हो। जब सुमन सिर झुकाये हुए उनके सामने आकर खड़ी हो गई तो वह झेंपे हुए दीनतापूर्ण नेत्रो से इधर-उधर देखने लगे, मानो छिपने के लिये कोई बिल ढूँढ रहे हो। तब अकस्मात् वह लपककर उठे अीर पीछे की और फिरकर वेग के साथ चलने लगे। सुमन पर जैसे वज्रपात हो गया। वह क्या आशा मन में लेकर आयी थी और क्या आँखों से देख रही है! प्रभु यह मुझे इतना नीच और अधम समझते है कि मेरी परछाई से भी भागते है। वह श्रद्धा जो उसके हृदय मे शर्माजी के प्रति उत्पन्न हो गई थी, क्षण मात्र में लुप्त हो गई। बोली, में आपसे कुछ कहने आई हुँ, जरा ठहरिये मुझ पर इतनी कृपा कीजिये।

शर्माजी ने और भी कदम बढ़ाया, जैसे कोई भूत देख कर वहाँ से भागे। सुमन से यह अपमान न सहा गया। तीव्र स्वर से बोली, मैं आापसे कुछ माँगने नही आई हूँ कि आप इतना डर रहे है। मैं आपको केवल यह कंगन देने आई हूँ। यह लीजिए अब में आपने आप ही चली जाती हूँ।

यह कहकर उसने कंगन निकाल कर शर्माजी की तरफ फेंका।

शर्माजी ठिठक गये, जमीन पर पड़े हुए कंगन को देखा। यह सुभद्रा का कंगन था।

सुमन बग्घी की तरफ कई कदम जा चुकी थी। शर्माजी उसके निकट आकर बोले, तुम्हें यह कंगन कहाँ मिला?

सुमन अगर मैं आपकी बातें न सुनूँ और मुँह फेर कर चली जाऊँ तो आपको बुरा न मानना चाहिये।

पद्म—सुमन बाई, मुहँ लज्जित न करो मैं तुम्हारे सामने मुँह दिखाने योग्य नहीं हूँ।

सुमन-क्यों?

पद्म-मुझे बार-बार यह वेदना होती है कि अगर उस अवसर पर मैंने तुम्हें अपने घर से जाने के लिये न कहा होता तो यह नौबत न आती।

सुमन-तो इसके लिये आपको लज्जित होने की क्या आवश्यकता