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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१००

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सेवासेदन
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है? अपने घर से निकाल कर आपने मुझपर बड़ी कृपा की, मेरा जीवन सुधार दिया।

शर्माजी इस ताने से तिलमिला उठे, अगर यह कृपा है तो गजाधर पाँडे और विट्ठलदास की है, मैं ऐसी कृपा का श्रेय नही चाहता।

सुमन—आप 'नेकीकर और दरिया में डाल' वाली कहावत पर चले, पर मैं तो मन में आपका एहसान मानती हूँँ। शर्माजी, मेरा मुँह न खुलवाइये, मन की बात मन ही में रहने दीजिये, लेकिन आप जैसे सहृदय मनुष्य से मुझे ऐसी निर्दयता की आशा न थी। आप चाहे समझते हों कि आदर और सम्मान की भुख बड़े आदमियो की ही होती है किन्तु दीनदशा वाले प्रणियों को इसकी भूख और अधिक होती है, क्योंकि उनके पास इसके प्राप्त करने का कोई साधन नहीं होता। वे इसके लिये चोरी, छल कपट सब कुछ कर बैठते है। आदर में वह संतोष है जो धन और भोग विलास में भी नहीं है। मेरे मन से नित्य यही चिंता रहती थी कि यह आदर कैसे मिले। इसका उत्तर मुझे कितनी ही बार मिला, लेकिन होली वाले दिन जो उत्तर मिला, उसने भ्रम दूर कर दिया, मुझे आदर और सम्मान का मार्ग दिखा दिया। यदि मैं उस जलसे में न आती तो आज मैं अपने झोपड़े मे संतुष्ट होती! आपको में बहुत सच्चरित्र पुरुष समझती थी, इसलिये आपकी रसिकता का मुझ पर और भी प्रभाव पड़ा। भोलीबाई आपके सामने गर्व से बैठी हुई थी, आप उसके सामने आदर और भक्ति की मूर्ति बने हुए थे। आपके मित्र-वृन्द उसके इशारों पर कठपुतली की भाँति नाचते थे। एक सरलहृदय आदर को अभिलापिणी स्त्री पर इस दृश्यकता जो फल हो सकता था वही मुझपर हुआ, पर अब उन बातों का क्या जो हुआ वह हुआ। आपको क्यों दोष दूँ? यह सब मेरा अपराध था। मैं.......

सुमन और कुछ कहना चाहती थी, लेकिन शर्माजी ने, जो इस कथा को बड़े गंभीर भाव से सुन रहे थे, बात काट दी और पूछा, सुमन, ये बातें तुम मुझे लज्जित करने के लिये कह रही हो या सच्ची है?