पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/१४

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छोटे-छोटे स्वतन्त्र बैंक बहुत थे। वे सब बालू की दीवार की भांति ढह गए। चार ही साल में दस हज़ार बैंकों का दिवाला निकल गया । अब अमेरिका को अपने लाखों मजदूरों को ज़िन्दा रखना दूभर हो रहा था। वे आवारा और गुण्डे हो रहे थे। उधर इंगलैंड जो डेड़ सौ वर्षों से संसार- व्यापी साम्राज्यवादी शोषण के बल पर सम्पन्न हो रहा था- डगमगा रहा था। देश भर के कारखाने खाली पड़े थे। लंकाशायर जो कभी आधी दुनिया को कपड़ा देता था, सूना हो रहा था। वहाँ के मजदूर भूखों मर रहे थे। इस समय दुनिया में खाद्य पदार्थों की कमी न थी। वे ज़रूरत से ज्यादा उत्पन्न हो रहे थे, फिर भी संसार में व्यापक भुखमरी फैली थी। खाद्य पदार्थ नष्ट हुए जा रहे थे। फसलें नहीं काटी जा रहीं थीं। उन्हें खेतों ही में जला डाला जाता था। फलों को वृक्षों पर सड़ने को छोड़ दिया जाता था । अनेक देशों में खाद्य पदार्थ नष्ट किए जा रहे थे । करोड़ों बोरियाँ खाद्यान्न समुद्र में फेंक दी गई थीं। ये सब अमानुषी कार्य मन्दी से बाज़ार का उद्धार करने के लिए किए जा रहे थे। इस मन्दी के भार से जहां अमेरिका के किसानों पर वज्र टूटा वहाँ, दक्षिणी अमेरिका, अर्जन्टाइना, ब्राजील और चिली की प्रजातन्त्री सरकारों का तख्ता ही उलट गया था। परन्तु एक उद्योग था, जो इस मन्दी की चपेट से बचा था। हथियार और युद्ध की सामग्री बनाने का । यह संसार व्यापी मन्दी पूंजी- वाद का अन्त-काल था। दूसरे ऋणों के बोझ ने विश्व के उद्योगों की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी थी। क्योंकि युद्ध काल में उधार लिया हुआ रुपया किसी उत्पादक रक़म में नहीं लगा था, वह तो विनाशक अर्थों में खर्च हुआ था और जिसने अपने पीछे भी विनाश ही छोड़ा था। परन्तु इस समय संसार के बाज़ार पर एकाधिपत्य स्थापित करने में अमेरिका और इंगलैंड में तुमुल संग्राम छिड़ रहा था । इस समय तक भी संसार में यही दो शक्तियां सबसे बड़ी थीं। पर एक पतनोन्मुखी और दूसरी उद्ग्रीव । युद्ध से पूर्व तो इंगलैण्ड का सर्वत्र प्रभुत्व था ही। पर १७