पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तोपखाना और गोरी पल्टन देहरादून आ पहुंची। इसके बाद नए साज- बाज से किले का मुहासरा किया गया। अब रात दिन किले पर गोले बरस रहे थे। गोलों के साथ दीवारों में लगे अनगढ़ पत्थर भी टूट-टूट कर करारी मार करते थे। एक-एक कर के किले के आदमी कम होते जाते थे। गोली बारूद की भी कमी होती जाती थी। परन्तु बलभद्रसिंह की मूछे नीचे झुकती नहीं थीं। उसका उत्साह और तेज वैसा ही बना हुआ था । इसी प्रकार दिन और सप्ताह बीतते चले गए। अकस्मात ही किले में पानी का अकाल पड़ गया। पानी वहाँ नीचे की पहाड़ियों के कुछ झरनों से जाता था। और अब यह झरने अंग्रेजी सेना के कब्जे में थे। उन्होंने नाले बंद करके किले में पानी जाना बंद कर दिया था। धीरे-धीरे प्यासी स्त्रियों और बच्चों की चीत्कारें करुणा का श्रोत बहाने लगीं। दीवारें अब बिल्कुल भंग हो चुकी थीं। उनकी मरम्मत करना सम्भव न था । तोप के गोले निरन्तर अपना काम कर रहे थे। उन तोपों की भीषण गर्जना के साथ जख्मियों की चीखें, पानी की एक बूंद के लिए स्त्रियों और बच्चों का कातर कंदन दिल को हिला रहा था । ये सारी तड़पर्ने, चीत्कारें और गर्जन-तर्जन सब कुछ मिल कर उस छोटे से अनोखे दुर्ग में एक रौद्र रस का समा उपस्थित कर रहा था । और उसकी छलनी हुई भग्न दीवारों के चारों ओर अंग्रेज़ी तोपें आग और मृत्यु का लेन-देन कर रही थीं। एकाएक ही दुर्ग की बन्दूकें स्तब्ध हो गईं । कमानें भी बन्द हो गईं। अंग्रेजों ने आश्चर्य चकित होकर देखा-इसी समय दुर्ग का फाटक खुला। अंग्रेज सेनापति सोच रहा था कि बलभद्रसिंह आत्मसमर्पण करना चाहता है। उसने तत्काल तोपों को बन्द करने का आदेश दे दिया। सारी अंग्रेज़ सेना स्तब्ध खड़ी उस भग्न दुर्ग के मुक्तद्वार की ओर उत्सुकता से देखने लगी। बलभद्र ही सब से पहले निकला । कन्धे पर बन्दूक, हाथ में नंगी तलवार, कमर में खुखरी, सिर पर फौलादी चक्र, गले में लाल गुलुबन्द । और उसके पीछे कुछ घायल, कुछ बेघायल योद्धा बन्दूकें कन्धों पर और १६४