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पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/१७६

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"यह तो एक सुशील तरुण है, क्या यह कोई भारतीय भाषा भी जानता है ?" "श्रीमन्त, मैं टूटी-फूटी मराठी बोल सकता हूँ।" "तुम भारत में कितने दिन से हो ?" "आज ही मैं पूना आया हूँ श्रीमन्त, नई ब्रिटिश रेजीमेंट के साथ, भारत में आए भी मुझे अभी पूरा एक सप्ताह नहीं हुआ।" “तुम क्या यूरोप की अन्य भाषाएँ भी जानते हो ?" "फ़ैन्च और स्पेनिश जानता हूँ सरकार ।" "क्या तुम हमारी सरकार में वफ़ादारी से नौकरी करोगे ?" "योर हाईनेस, मैं आनरेवुल कम्पनी का अनुगत और वफ़ादार सेवक हूँ, इसलिए मैं श्रीमन्त की आज्ञा पालन करने में असमर्थ हूँ।" पेशवा क्षरण भर चुप रहा। फिर उसने बिना ही तरुण की ओर देखे कहा- "इसे हमारे हुजूर से ले जाओ, और एलफिंस्टन के सुपुर्द कर दो । साथ ही सारी हक़ीक़त भी लिख दो।" तरुण को उन्हीं दोनों अफसरों ने अपनी तलवार की छाया में ले लिया और उसे ले चले।

१० :

पिडारी पिंडारी दक्षिण भारत की पठान जाति थी। शिवाजी के समय से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक मराठों की सेना में पिण्डारियों का एक खास महत्व था । ये लोग अधिक- तर नर्वदा के किनारे रहते थे। जहाँ होल्कर और सिंधिया दरबार की अोर से उन्हें जमीनें दी हुई थीं । शान्ति काल में ये खेती-बाड़ी करते या टट्ट और बैलों पर माल लाद कर बेचते फिरते थे । लड़ाई के समय मराठा सेना में भर्ती हो कर लड़ते थे । पिंडारी वीर-ईमानदार और बफादार होते थे। इनके पृथक्-पृथक् जत्थे होते थे, जो 'दुरे या 'लब्बर' १८०