ही के कारण इस शिखर को पार्वती का नाम दिया गया हो। पूना नगर की सीमा से कोई छह सौ गज के अन्तर पर पूर्वी-दक्षिण दिशा में यह पहाड़ी है । इसकी ऊंचाई भी दो सौ फ़ीट से अधिक नहीं है। इसी के नीचे से सिंहगढ़ को एक सड़क पथरीली टेढ़ी-मेढ़ी बल खाती हुई चली गई है । पहाड़ी के इस शिखर पर से पूना नगर और उसके आसपास का भव्य दृश्य बड़ा आकर्षक प्रतीत होता है । सामने ही सिंहगढ़ और तोरन के दुर्ग भी स्पष्ट दीख पड़ते हैं। जिन के साथ पिछले तीन सौ वर्षों का मराठों के उ.थान-पतन का इतिहास भी है । इन के अतिरिक्त दूर तक के मैदान का भाग भी दीख पड़ता है-जिस का मराठा इतिहास से गहरा सम्बन्ध है। सूर्य धीरे-धीरे ढल रहा था । नवम्बर की पांचवीं तारीख थी-जो मराठों की भाग्य रेख अंकित करने वाली थी। पेशवा बाजीराव पहाड़ी के उत्तरी क्षेत्र पर खड़ा-खिड़की से संग्रामस्थल की ओर उत्सुकता-पूर्वक देख रहा था । जहाँ बापू जी गोखले की कमान में उसके पचास हजार मराठे उसके संकेत की प्रतीक्षा में तोपों को बत्ती दिखाने खड़े थे। इस समय उसका मुख चिन्ता और उद्वेग से भरा था। अनेक मराठे सरदार उसके आसपास चारों ओर उसी भाँति उत्सुक और अस्थिर खड़े थे। पेशवा कभी अपने चरणों में पड़े पूना नगर को-कभी अंग्रेजों की विपुल वाहिनी को और कभी अपनी मराठा सेना की ओर देखा रहा था जो धीरे-धीरे खिड़की की ओर अग्रसर हो रही थी। नीचे का सारा विस्तृत मैदान सैनिकों से भर रहा था। यह एक कठिन परीक्षा का क्षण था । यदि खिड़की के संग्राम में मराठों की सैना विजयी होती है तो वह एक बार फिर अपने बिखरे हुए मराठा संघ को सुगठित कर सकता है उस में विवेक था-पर साहस नहीं। वह आराम तलब था । परन्तु यह क्षण उसके कर्मठ होने की परीक्षा का था। वह अभी भी कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था। अनेक बड़े-बड़े सरदार और सैनिक अफ़सर उसे घेर कर चारों ओर खड़े उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे। वाता-
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