पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/१८९

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वरण गम्भीर और वर्षोन्मुख बादलों जैसा हो रहा था। वह एक बार दूर तक फैले हुए पूना नगर पर दृष्टि डालता-जहाँ सुख-समृद्धि और जाहोजलाली के भण्डार भरे पड़े थे-जहाँ उसकी बाप-दादों की गद्दी थी–दूसरी ओर वे पहाड़ियाँ थीं, जहाँ सिंहगढ़ और तोरन के अजेय दुर्ग खड़े शिवाजी की कीर्ति का मौन सन्देश दे रहे थे। सामने अंग्रेजों की छावनी थी, जिसे मराठों ने हाल ही में जला कर राख कर दिया था। जहाँ से अभी भी धुंआ उठ रहा था । और उसी के पार उत्तर-पूर्व में खिड़की की वह युद्धस्थली दीख रही थी, जहाँ जगह-जगह पर अंग्रेजों की तोपें मराठा सत्ता का संहार करने की प्रतीक्षा में तैयार मुंह बाए सज्जित थीं—जिन के पीछे चालीस हज़ार अंग्रेज़ी सुसज्जित सेना खून की होली खेलने को सन्नद्ध खड़ी थी । वह सोच रहा था-क्या मुट्टी भर अंग्रेजों का मुंह हम मराठे मोड़ कर समुद्र की ओर नहीं कर सकते ? क्या हम इन विदेशियों को समुद्र पार इन के देश में नहीं खदेड़ सकते ? क्या यह मराठा मण्डल का पुराना स्वप्न अब चरित्रार्थ नहीं हो सकेगा कि हिमालय से केप कमोरिन तक भगवा झण्डा फहरा दिया जायगा। परन्तु क्या आज ही हमारी भाग्य परीक्षा नहीं है ? क्या आज ही हमारे भाग्य का फैसला होने वाला नहीं है। तब मैं यहाँ खड़ा क्या कर रहा हूँ। क्यों नहीं मैं शिवाजी की भाँति हाथ में तलवार ले कर मैदान में अपने मराठा वीरों के आगे खड़ा होता । उसने तेज नज़र से अपने शरीर-रक्षक पाँच सहस्र मराठों की ओर देखा, जो इसी पहाड़ी पर उसकी पीठ पर शांत भाव से खड़े थे। उसकी दृष्टि सब ओर से घूम कर शरीर-रक्षक सेना के कप्तान गोविन्दराव गोखले के मुंह पर जम गई । जो एक लोहे के समान ठोस कठोर मुद्रा का तरुण था। उसने अपना ज़री काम का पटका हवा में लहराया। फिर कहा- "गोखले, हो, हमारी तलवार हमें दे और हमारा घोड़ा मंगा, हम यहाँ क्या कर रहे हैं ! हमें अपनी सेना के अग्र-भाग में जाकर उसका नेतृत्व