प्रलय से प्रथम तक पेशवा का उन पर हाथ रहा, पर पानीपत के बाद वे बिखर गए और अंततः वे स्वतन्त्र शासक हो गए । मराठों का संघर्ष जब तक मुसलमानों से हुआ, उन्हें कोई हानि नहीं पहुँची, क्योंकि मुसलमानों की सामर्थ्य भी सशक्त न थी, परन्तु ज्योंही उन्हें अंग्रेजों की बढ़ती हुई शक्ति से टकराना पड़ा, वे ढह गए। अंग्रेजों की प्रबल शक्ति से वे टक्कर न ले सके। एक बात और । शिवाजी ने और उनके बाद वालाजी वाजीराव आदि नेताओं ने मराठा शाही को हिन्दुत्त्व के रक्षक का रूप दिया था, इससे उसे हिन्दु राज्यों से गहरा सम्पर्क और समर्थन प्राप्त हुआ था। परन्तु वह देर तक टिका नहीं । खास कर पानीपत के युद्ध के बाद तो राजपूत और जाट राजाओं के मन में मराठों के प्रति विद्वेष की भावना भर गई। वे क्रुद्ध हो कर लौटे। वाजीराव यदि इन देश के अन्य हिन्दु शासकों के के साथ सक्रिय सहयोग उत्पन्न कर लेता, तो निश्चय ही उसके ऊपर वह संकट न आया होता, जो खिड़की संग्राम के बाद उस पर आया, और वह ऐसा असहाय भी न रह जाता कि उसकी सहायता के लिए किसी राजा ने हाथ न बढ़ाया। इसके अतिरिक्त यदि उसकी राजनीतिक आँखें होती तो वह यह देख पाता कि ज़बर्दस्त तोपखाने और नियन्त्रित सेना के बिना अंग्रेजों से जीतना सम्भव नहीं है तो उसे राज्य की सम्पूर्ण शक्ति तोपखाने और शिक्षित सेना की तैयारी में लगा दी होती। परन्तु उसने अपनी सारी शक्ति आपसी घरेलू झगड़ों में नष्ट कर दी। और भी दो बातें थीं, जिन्होंने मराठा शक्ति को जर्जर कर दिया था। एक तो हिन्दुओं के धार्मिक भेदभावों ने लोगों के मनों को छिन्न- भिन्न और एक-दूसरे का विरोधी बना दिया था। जिससे भीतर ही भीतर हिन्दु शक्ति बिखर चुकी थी। वाजीराव जैसा कायर, आरामतलब और अदूरदर्शी आदमी इस त्रुटि को कैसे दूर कर सकता था। दूसरी बात थी आर्थिक सम्पन्नता की। महाराष्ट्र की पहाड़ियाँ कष्ट सहिष्णु मराठा योद्धानों के लिए तो उपयुक्त थीं, पर साम्राज्य का २०४
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