पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२१६

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इण्डिया कम्पनी की राजधानी कलकत्ते में कोई अंग्रेज़ नाई नहीं है । बस वह इस सुयोग से लाभ उठाने भारत चला आया। जहाज पर उसने केबिन- बॉय की हैसियत से यात्रा की। कलकत्ते पहुँच हज्जाम का काम करके कुछ रुपया जोड़ा-फिर वह काम छोड़ कुछ विलायती सौदागरी का सामान खरीद उत्तर पश्चिम में गाँव-गाँव-कस्बे-कस्बे फेरी लगाता- कन्धे पर बुकची रखे–माल बेचता लखनऊ आ पहुंचा। लखनऊ पहुँच कर उसने रेजीडेन्ट मेजर वेली के बाल बना कर उन्हें खुश कर लिया। हिजमैजस्टी नसीर के बाल सूअर के समान कड़े और खड़े थे। एक दिन रेजीडेन्ट ने इस काने नाई को उनकी सेवा में ला उपस्थित किया-उसने उनके बाल धुंघराले बना दिए । बादशाह बहुत खुश हुए । हज्जाम को पहले नौकर रखा-फिर उसकी वाक्चातुरी और मज़ाकिया प्रकृति से प्रसन्न हो उसे अपना मुसाहिब बना लिया। अब वह बादशाह की नाक का बाल बना हुआ था । ठाठ से शाही दस्तरखान पर शाही खाना खाता और बढ़िया शराब पीता था। दूसरा मुसाहिब एक दर्जी था, जो इटली का निवासी था। वह विलायती गाना गाने में उस्ताद था । तीसरा एक मास्टर था, जिस से बादशाह ने शुरू में ए. बी. सी. डी. पढ़ी थी, -पर अब उसे पढ़ने की फुर्सत ही नहीं मिलती थी। चौथा आदमी एक लाइब्रेरियन था। उसके द्वारा भाँति-भाँति की पुस्तकें मंगा कर इकट्ठा करने का नसीर को शौक था। पाँचवाँ एक थोड़ी ही आयु का कल था, जो आयर्लेण्ड का निवासी था। हज्जाम को बादशाह ने सरफ़राज़ खाँ का खिताब दिया हुआ था। हज्जाम उसे हिजमैजस्टी कह कर पुकारता था और बादशाह उसे खाँ साहब कह कर सम्बोधन करता था । शाही खजाने से इन पाँचों मुसाहिबों को हर महीने पन्द्रह सौ रुपया मुशाहरा मिलता था। इसके अतिरिक्त दरवार के दिनों में या ईद मुहर्रम पर चार छह हजार रुपया और भी इनाम इक़राम मिल जाता था। ये मुसाहिब सब बादशाह के साथ शाही दस्तरखान पर खाना खाते और बढ़िया शराब पीते थे। २२०