पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२३२

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"नाराज़ "तो हुजूर, मैं उधार कहाँ से दूं । ग़रीब दूकानदार हूँ। पेट भरने को सुबह-सुबह यहाँ पर खून जलाता हूँ। आप हैं कि सुबह-सुबह हाज़िर । एक दिन, दो दिन, तिन दिन, आखिर कबतक ? पूरे नौ आने उधार हो गए।" "इसे कहते हैं कमीनपना । न किसी की इज्जत का ख्याल, न रुतबे का । मुंह में पाया, वक़ गए । अवे हम सरकारी जमादार हैं, चरकटे नहीं।" "तो जमादार साहब पैसे नक़द दीजिए, उधार की सनद नहीं।" जमादार ने दो पैसे टेंट से निकाल कर फेंक दिए। तैश में आकर बोले-"अब कौन तुम से मुंह लगे । अब से जो तुम्हारी दूकान पर पाए उस पर सात हर्फ़ ।" दूकानदार ने पैसे उठाए । और ज़रा नर्म हो कर कहा- न हों, हम टके के आदमी, इतनी गुंजाइश कहाँ कि उधार सौदा दें जमा- दार साहब । लीजिए चटनी चखिए, क्या नफीस बनाई है । ये मिया कहते हैं-बासी है।" उसने रकाबी में गर्मागर्म फुल्कियाँ और चटनी रख दी । जमादार साहब ने खुश हो कर कहा--"यह फुल्कियाँ चटनी तो तुम लखनऊ भर में बनाने वाले एक ही हो।" “हुजूर, यह अांच का खेल है, निगाह चूकी कि बिगड़ा।" "भाई बड़ी कारीगरी का काम है, बस तुम्हारा ही दम है । पैसों का खयाल न करना हाँ, बस तनख्वाह मिली कि तुम्हारे पैसे खरे । अजी बरसों से हम तुम्हारी दूकान से फुल्कियाँ लेते हैं। अब चलता हूँ। हसनू की दूकान से घेले का तम्बाकू और रज्जब पूँजड़े से धेले की अरवियां लेनी हैं । मंगर यार हसनू का जंगी हुक्का हर वक्त तैयार । उधर से जाने वाले पर लाजिम है, एक कश ज़रूर लगाए। सौदा ले या न ले । प्रोफ्फो दो पैसे की अफीम की पुड़िया भी लेनी है । लो भई, अब तो संदर तक दौड़ना पड़ा।" जमादार तेजी से चल दिए। ।