पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२३१

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हाथ "हाँ भाई, बादशाह हैं। पर रियाया का भी तो ख्याल रखना लाज़िम है।" सामने की दूकान पर करीमा फुल्कियाँ वाला गर्मागर्म फुल्कियाँ उतार रहा था। मियाँ अमजद तहमद कड़काते आए--एक पैसा झन्नाटे से थाल में फेंक कर कहा--"म्या दे तो एक पैसे की गर्मागर्म ।" 'एक पैसे की क्या लेते हो, कल्ला भी गर्म न होगा। दो पैसे की तो लो।" "दो ही पैसे की दे दो यार, मगर चटनी ज़रा ज़्यादा देना।" फुल्की वाले ने बीस फुल्कियाँ दोने में भर कर अमजद के में दीं। और चटनी की हाँडी, आगे सरका कर कहा 'ले लो, जितना जी चाहे।" "अमज़द ने चटनी दोने में भरी और कहा--'यार, चटनी तो बासी मालूम पड़ती है।" "लो और हुई । म्या, अभी तो पाव भर खटाई की चटनी बनाई है। आप चटनी पहचानने में खूब मश्शाक हैं।' "तो तेज क्यों होते हो म्या। मैंने बात ही ता कही ।" "और मैंने क्या तमाचा मारा, क्या जमाना आ गया, लखनऊ शहर में अब तमीज़दारों की गुज़र नहीं।" "प्राक्खाह, तो आप तमीज़दार हैं।" ये बातें हो ही रही थीं कि हुसेन खां जमादार रक़ाबी लिए लपकते आए। बोले-"म्या करीम, ज़रा दो पैसे की फुल्कियां तो देना यार, घान जरा खरा करके निकालो, खूब फुल्कियां बनाते हो यार । इस कदर मुंह लग गई हैं कि खुदा की पनाह । नखास से आना पड़ता है तुम्हारी दूकान पर।" "तो पैसे निकालिए साहब।" "इसके क्या माने ! शरीफों से ऐसी बात ?" २३५