शहर के क्या हालचाल हैं। आज तो बाजार में कुछ रौनक ही नज़र नहीं पा रही।" "जी हाँ, ज़माना टेढ़ा है । शरीफजादों की मुसीबत है।" मीर साहब ने एक गहरी सांस ली। धूप काफ़ी चढ़ आई थी। आगामीर और मिर्जा जी भर कर हुक्का पी कर ताज़ादम हो गए थे। आगामीर मार्के के आदमी थे। छोटे-बड़े सभी के काम आते थे। रहते थे ठस्से से। क़रीमा उनका पुराना खिदमत- गार था। सब तरह का काम वह करता था। मगर सौदा-सुलफ लेने जाता तो सुबह का गया शाम ही को लौटता था । मीर साहब के मकान के आगे कहारों का अड्डा था। लोग समझते थे, ये मीर साहब के नौकर हैं। फीनस अापके दरवाजे पर रहती थी, जब ज़रूरत हुई सवार हो लिए । कहार हाज़िर । आप रईसों के बड़े-बड़े मुक़दमे कजिए सुलझाते। उनकी पैरवी करते । लखनऊ भर के जालिए, मुक़दमेबाज, झूठी गवाही देने वाले, जाली दस्तावेज बनाने वाले आपको घेरे रहते थे। उनकी आमद- रफ्त रेजीडेन्सी तक भी थी। और वे अंग्रेजों के खुफिया नवीस थे। पर मुंह पर कोई नहीं कहता था। दो आदमी आगामीर के हत्थे चढ़े थे, एक मियाँ करीम खाँ ; जो शाही महल के खास ड्योढ़ीदार थे ; दूसरी बी इमामन, जो शाही महल सराय महरी थी। दोनों से आग़ामीर के बहुत काम निकलते थे । महल का राई-रत्ती हाल उन्हें मिलता रहता था। मियाँ करीम खाँ सूखे मिजाज़ के आदमी थे। किसी से ज्यादा दोस्ताना नहीं रखते थे। पर बी इमामन से उसकी श्राश्नाई थी। रात को दोनों साथ खाना खाते । आठ बजे उनकी ड्योढ़ी से छुट्टी हो जाती । वे हाथ-मुंह धो, बन-ठन कर तैयार बैठे, इमामन की इन्तज़ार करते । बस नौ की तोप छूटी कि बी इमामन की छुट्टी हुई। शाही दस्तरखान से कोई सेर भर चपातियाँ और दो-चार मीठे टुकड़े, प्याली में सालन लिया, इसके अलावा बेगमे आलिया के दस्तरखान का २३०
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