पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२९५

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क्षीण स्वर में कहा-"अब जाऊँगा, बढ़े भाई ! मंगला वहाँ मेरी बाट जोह रही है," और वह मुस्कान उनके अोठों पर फैली ही रह गई। उनको अाँखें पलट गईं। बड़े मियाँ ने अब एक क्षण भी खोना ठीक नहीं समझा। उन्होंने छोटे मियाँ को बुला कर समझाया- "बेटे, तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं छोड़े जा रहा हूँ। बड़ा गाँव गया, पर क्या ग़म । हमने कभी किसी पर जुल्म नहीं किया, किसी का दिल नहीं दुखाया । खुदा की मर्जी- बेहतर हो तुम दिल्ली चले जाओ और कोई अच्छी नौकरी कर लो। मैं अभी तो कलकत्ते जाऊँगा। चौधरियों को बचाने की जो भी बन पड़ेगी कोशिश करूँगा। यदि फिर जिन्दा वापस आ सका तो देलूँगा कि तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ। नहीं तो बस खुदा हाफिज ।" छोटे मियाँ बहुत रोए। कलकत्तं चलने का बहुत इसरार किया। पर बड़े मियाँ ने नहीं मंजूर किया। जिस क़दर ज़र-जवाहरात रुपया चौधरी का बचा था, सब लेकर वे डाक पर डाक बैठा कर कलकत्ते चल दिए । कलकत्ते पहुँचने में उन्हें दो महीने लग गए । वहाँ पहुँच कर उन्होंने बड़े-बड़े अंग्रेज़ बैरिस्टर खड़े किए। पर परिणाम कुछ न हुआ। मुकदमा बहुत दिन तक चलता रहा-अन्त में चौधरी के सबं बेटों को और उनके साथ और पचास-साठ आदमियों को फाँसी की सज़ा सुना दी गई । अपील में भी कुछ न हुआ। यथा-समय उन्हें फांसी दे दी गई, अन्य सैकड़ों अपराधी-निरपराधी आजन्म कालेपानी भेज दिए गए। बड़े मियाँ फिर लौट कर न आए। न किसी को पता-फिर वे कहाँ गए। लोग कहते सुने गए—कि एक बूढ़ा मुसलनान फ़कीर कलकत्ते की गलियों-बाजारों में अर्ध-विक्षिप्त अवस्था में बहुत दिन तक भटकता फिरता रहा । वह न कुछ किसी से माँगता था, न बोलता था । न उसे शरीर की सुध थी- न वस्त्रों की । और एक दिन उसे कलकत्ते में एक सड़क के किनारे- मरा पड़ा पाया गया । और कुछ मुसलमान फ़कीरों ने उसे ले जाकर दफना दिया।