पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/३०

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"लेकिन भई, मैं भी तो अब पचासी को पार कर चुका । सुबह का चिराग़ हूँ।" "तौवा, तौबा, यह क्या क़ल्मा ज़बान पर लाए हुजूर, । जी चाहता अपना मुँह पीट लूँ । हुजूर का दम गनीमत है।' बड़े मियाँ हंस दिए। उन्होंने कहा-"तैयारी कर दो पीरू । ज़रा दिन गर्माएं तो बस चल ही दें। तब तक छोटे मियाँ की तालीम भी खत्म हो जायगी।" "बस तो चैत की ठहरी । ऐसा कौन बड़ा सफ़र है । एक इन फ़िरं- गियों का कलेजा तो देखिये सरकार, सात समंदर पार से आते हैं, फिर भी चुस्त पोर चालाक । फ़िरंगियों के जहाज़ में चलेंगे हुजूर, किराया तो कुछ ज्यादा लगेगा, मुल आराम और हिफ़ाज़त का पूरा इन्तज़ाम होगा। लेकिन उनके जहाज़ तो सूरत से नहीं जाते हुजूर ।" "नहीं, बम्बई से जाते हैं। नया बन्दरगाह बसाया है उन्होंने ।" "सुना है, खूब गुलज़ार है।" "हाँ तेज़ी से आबाद हो रहा है। फिरंगियों की क़ौम ही ऐसी है जहाँ-जहाँ जाती है, बहबूदी और चहल-पहल बढ़ती ही जाती है। "तो बस, इन गर्मियों की रही सरकार ।" "हाँ, हज़रत सलामत बादशाह से भी जिक्र करूँगा। उनका पैग़ाम भी आया था। लालकिले में बुलाया है। कल्यान की लड़की की शादी हो जाए तो जाऊँ । कहीं ऐसा न हो जाय कि नाक कटी हो। कल्यान है ज़रा बेफ़िकरा । तुम भी ख्याल रखना पीरू ।' "खुदा की शान है, सरकार । किस की मजाल है कि बड़ेगाँव पर उंगली उठाए, जहाँ आप जैसे दरियादिल मालिक हैं, जो भंगी की लड़की की शादी के लिए बादशाह की मुलाक़ात को मुल्तवी कर देते हैं । सुभान , अल्लाह ।" पीरू ने झुक कर मियाँ के क़दमों पर बोसा लिया और आँसू