पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२९

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"बहुत अच्छा अब्बा," कह कर छोटे मियाँ अपने कमरे में चले गए। बड़े मियाँ देर तक हुक्का पीते रहे। पीरू मियाँ आकर फिर पैर दबाने लगे । पैर दबाते-दबाते पीरू ने कहा- हुजूर बस, अब तो हज को चल ही दीजिए। आप के तुफ़ैल से गुलाम को भी जियारत नसीब हो जाए।" "मियाँ पीरू, हज की मैं दिली तमन्ना रखता हूँ। मगर दिल मसोस कर रह जाता हूँ । सोचता हूँ, साहबजादा घर-बार सम्हाल लें, उनकी शादी हो जाय तो बस, मैं चल ही दूं।" 'सरकार, ये सब तो दुनिया के धन्धे हैं। चलते ही रहेंगे । फिर छोटे मियाँ, अल्लाह उनकी उम्र दराज़ करे. अब नादान नहीं हैं, ज़हीन तो बचपन ही से हैं, अब तो सरकार, आलिम हो गए हैं। अंग्रेजों की सोहबत में रह चुके हैं । साहब लोगों से फरफर अंग्रेजी बोलते हैं।" "खुदा के फ़जल से सब क़ाबिल हैं, सब कारोबार सम्हाल कर मुझे छुट्टी दे सकते हैं। मगर अभी नादान हैं । काम में कुछ भी सहारा नहीं लगाते । बस, पढ़ने ही की धुन है।" "तो पढ़ाई भी तो अब खात्मे पर है।" "बस एक साल और है ।" "तो हुजूर, कोई एक अच्छी-सी लड़की देख कर शादी कर दीजिए। खुदा की क़सम, आँखें तरस रही हैं। न जाने कब ज़िन्दगी धोखा दे जाय । मियाँ की दुलहिन का चाँद-सा मुखड़ा और देख जाऊँ । क्या करूँ सरकार, जब से हुजूर मालकिन जन्नत-नशीन हुईं, घर काट खाने को अाता है। बस, अब तो शहनाई बज ही जाए।" "लेकिन छोटे मियाँ तो शादी के नाम से ही भड़कते हैं। फिरंगियों के साथ रह कर अब वे भी नई-नई आदतें सीख रहे हैं।" "माशा अल्लाह, अभी उनकी उम्र ही क्या है सरकार । मगर उनकी ज़हनियत बहुत ऊँची है। फिर जब तक हुजूर का साया उनके सर पर है, उन्हें किस बात का ग़म है । इसी से शायद वे बेफ़िक्र हैं।"