पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/३८

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14 "बस, दुलखो मत बड़े भाई । साहबजादे पहली बार भेरी ड्योढ़ी पर आए हैं । यह उन की नज़र है।" "लेकिन यह तो तमाम कर्जे की भरपाई की रसीद है।" "तो क्या हुआ। आप की सखावत ने तो सारी रियासत को रहन रख दिया। अब छोटे मियाँ को मेरी तरफ से यह छोटा-सा नज़राना है।" “यह न हो सकेगा चौधरी, यह भी कोई इन्साफ़ है । तौबा, तौबा !" उन्होंने काग़ज़ चौधरी के पलंग पर फेंक कर दोनों हाथों से कान पकड़ लिए। चौधरी की आँखों में पानी भर आया । उन्होने कहा- "बड़े भाई, मेरे साथ इस क़दर सख्ती ! ऐसी बेरुखी ! आप तो कभी ऐसे न थे। भला सोचो तो--हमारे आप के बीच कोई फर्क है। मैंने तो कभी उस घर को अपने घर से अलग नहीं समझा । जैसे मुझे अपने बच्चों का ख्याल है वैसे ही छोटे मियाँ का भी है। फिर यह मेरा आखिरी वक्त है। छोटे मियाँ को मैं कैसे छंछे हाथ रहने दे सकता हूँ। "तो जमीदारी पर ही क्या मौसूफ है । खुदा ने चाहा तो उसे कम्पनी बहादुर की कोई अच्छी सी नौकरी मिल जायगी।" "मिल जायगी तो अच्छा ही है । मगर बाप-दादों की जायदाद से भी तो मियाँ को बरतरफ़ नहीं किया जा सकता।" "कौन बरतरफ़ करता है, चौधरी ; तुम्हारा रुपया मय सूद चुकता करके जमीदारी छूट जायगी -तब वही तो मालिक होगा।" "अच्छी बात है, रसीद तो आप रख लीजिए। जब रुपया हो, उसे मेरी तरफ से छोटे मियाँ की शादी में दुलहिन को दहेज दे दीजिएगा।" “यह तो वही बात हुई।" "तो दूसरी बात कहाँ से हो सकती है।" “खैर, तो आप जानिए---और छोटे मियाँ, मैं तो मंजूर नहीं कर सकता।" "तो छोटे मियाँ को हुक्म दे दीजिए।" "नहीं, हुक्म भी नहीं दे सकता।"