सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

"मापको इजाज़त दे सकता हूँ, मगर भाई साहेब को नहीं।" "ये फिर आ जाएँगे, अभी तो छुट्टियाँ हैं।" "यह नहीं हो सकता। मैं तो आज इन्हीं के लिए तमाम दिन. परे- शान रहा हूँ।" "परेशान क्यों रहे बेटे ?" "शिकार के बन्दोबस्त में । कछार में एक नया शेर पाया है। कल ही कई आसामियाँ शिकायत के लिए आई थी। आदमखोर है। उधर गाँवों में उसने बहुत नुक्सान किया है । बस सुबह जब आप आए तो मैंने तय कर लिया कि भाईसाहेब और मैं शिकार करेंगे उसका । अब सब बंदोबस्त हो गया है। और आप खिसक रहे हैं चुपचाप । यह नहीं हो सकेगा।" उसने आगे बढ़ कर छोटे मियाँ का हाथ पकड़ लिया । शेर के शिकार की बात सुन कर छोटे मियाँ का कलेजा उछलने लगा। कभी शेर का शिकार नहीं किया था। यों बन्दूक का निशाना अच्छा लगाते थे। कभी-कभी शिकार भी करते थे । मगर मुर्गाबियों और हिरनों का । सुन कर खुश हो गए। उन्होंने मुस्करा कर बड़े मियाँ की ओर देखा । बड़े मियाँ ने कहा-"तो बेटे, रह जाओ दो दिन, भाई के पास ।" बड़े मियाँ चले गए। छोटे मियाँ को खींच कर सुरेन्द्रपाल अपने कमरे में ले गए। दोनों की समान आयु थी। रात-भर में दोनों तरुण पक्के दोस्त हो गए। साथ खाया और साथ सोए। दूसरे दिन शिकार की तैयारियाँ हुईं । शिकारी इकट्ठे हुए । बन्दूकें लैस की गईं । हाका बैठाया गया । मचान बाँधे गए। और शाम होते-होते दोनों दोस्त मचान पर जा बैठे। सुरेन्द्रपाल कई शेर मार चुका था। उसका हौसला बढ़ा हुआ था। पर छोटे मियाँ के लिए पहला अवसर था। उत्सुकता और घबराहट दोनों ही उसके मन में थीं। सुरेन्द्रपाल ने कहा- 'शर्त बदो।" "कैसी शर्त?" "शेर अगर तुम्हारी गोली से मरे तो मैं यह अंगूठी तुम्हें नज़र