पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/५०

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काफ़ला पिछले परिच्छेदों में जिन घटनाओं का वर्णन है, उस से कोई पैंतीस बरस पहले, विक्रम सम्वत् १८६२ के बैसाख की चतुर्दशी या पूर्णिमा के दिन, तीन सरदारों ने मुक्तेसर के सिवानों पर पा कर अपने घोड़े रोके । सन्ध्या होने में अब विलम्ब नहीं था। दिन भर तप कर इस समय सूरज की धूप पीली पड़ गई थी। तीन सरदारों में से दो बलिष्ठ प्रौढ़ पुरुष थे। तीसरा तरुण था । तीनों हथियारों से लैस थे। घोड़े उन के पानीदार जानवर थे। पर वे बुरी तरह थक गए थे। सवारों के चेहरों और वस्त्रों पर धूल-गर्द भरी थी। सरदारों के साथ भारी काफ़ला था। काफ़ले में कोई पचास साठ वाहन थे। वाहनों में ऊँट, घोड़े-रथ, बहल और छकड़े । कुछ लोग पैदल थे । जनानी सवारियाँ रथों पर और बहलों पर थीं। मर्द घोड़ों पर, ऊँटों पर और टटुओं पर थे । कुछ टटुओं और गधों पर सामान लदा था। कुछ सामान छकड़ों पर था । पैदल जन उन्हें घेर कर चल रहे थे। सब मिला कर काफ़ले में दो सौ के लगभग स्त्री-पुरुष होंगे। सव थक रहे थे। सब के कपड़े-लत्ते धूल से भर गए थे। तीनों सरदार काफ़ले के आगे-आगे चल रहे थे। काफ़ला उन से कोई पचास गज के फ़ासले पर था। सरदारों के रुकने पर सारा काफ़ला रुक गया।