परन्तु दिल्ली । उसके अधीन एक पल्टन और चार कम्पनियाँ देशी पैदल और एक पल्टन मेवातियों की दिल्ली रक्षा के लिए तैनात थी। आस-पास और दिल्ली खास, जहाँ कम्पनी की अमलदारी थी, भारतीय प्रजा में असन्तोष की लहर फैल रही थी। सिंधिया और भोंसले के साथ युद्ध के समय जो कम्पनी के अफसरों ने भारतीय राजाओं और प्रजा के साथ जो बेईमानी और वादा-खिलाफ़ी की थी, तथा जगह-जगह जो अत्याचार प्रजा पर किए थे, और अब जो इलाक़े कम्पनी की अधीनता में आ चुके थे, वहाँ जो भीषण अत्याचार हो रहे थे। उससे ही अंग्रेजों के विरुद्ध एक रोषाग्नि सर्व साधारण के मन में सुलग रही थी। जनता में उनके अनेक शत्रु पैदा हो रहे थे। अंग्रेजों को अब यह आशा न थी कि भावी युद्ध में भारतीय प्रजा और उसके नेता उनकी उसी भाँति सहायता करेंगे जैसी पिछले युद्धों में की थी। इसके विपरीत उन्हें डर था कि कहीं यदि नया युद्ध हुआ तो ये समस्त शक्तियाँ हमारे विरुद्ध उठ खड़ी होंगी। फिर भी इस समय अंग्रेज़ होल्कर से एक करारी टक्कर लेने को बेचैन हो रहे थे। सिंधिया के पतन के बाद अब मराठा मण्डल में वही एक पराक्रमी और बलवान राजा रह गया था, जिसे कुचलना अत्यन्त आवश्यक था। गवर्नर जनरल वेल्ज़ली जनरल लेक पर बराबर उसके लिए जोर डाल रहा था, और उधर जसवन्त राय होल्कर भी हिन्दू और मुसलमान नरेशो को अंग्रेजों के विरुद्ध अपने साथ मिलाने की जी जान से कोशिश कर रहा था । अंग्रेज़ ऊपर से उसके साथ दोस्ती की बातें करते और भीतर ही भीतर जालसाजियों, रिश्वतों, और झूठे वादों के तूमार बांध रहे थे । और सरहद पर फौजें इकट्ठी कर रहे थे । पर अपनी सेना की अपेक्षा अपने गुप्त उपायों पर उन्हें अधिक विश्वास था । उन दिनों राजनीति का आज के समान विकास न हुआ था, और सेनापति केवल युद्ध ही न करते थे, राजनीति में भी काफ़ी दखल देते थे। आज तो सैनिक का राजनीति में दखल देना भयंकर अपराध माना
पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/५५
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