पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/५४

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राजनीति की चौसर दूसरा मराठा युद्ध समाप्त हो चुका था। जिसने सिंधिया की सारी ही शक्ति समाप्त कर दी थी। दिल्ली, आगरा और अलीगढ़ के आस-पास के इलाकों की इस समय अत्यन्त अव्यवस्थित और अराजक स्थिति थी। दिल्ली का समस्त शासन-प्रबन्ध इस समय अंग्रेजों के हाथ में था। कहने के लिए कम्पनी के अफ़सर और अंग्रेज़ बादशाह को भारत का अधिराज मानते थे। परन्तु वास्तव में अब बादशाह की यह उपाधि औपचारिक ही थी। बादशाह और उसके परिवार के खर्चे के लिए बादशाह को अंग्रेजों ने बारह लाख रुपया सालाना की पैन्शन देना स्वीकार किया था। इसके अतिरिक्त बादशाह का अदल लाल किले की दीवारों के भीतर क़ायम रह गया था। बादशाह शाहयालम यद्यपि बूढ़ा, अंधा और बेबस था । योग्य आदमियों का उसके पास सवथा अभाव था। वह अभी तक सिंधिया के हाथों एक प्रकार से बन्दी था। सिंधिया एक बार लासवाड़ी के मैदान में विफल ज़ोर-आज़माई करके ग्वालियर की अपनी राजधानी में जा बैठा था । ग्वालियर को छोड़ कर सिंधिया के सब इलाके कम्पनी के अधिकार में आ गए थे। बादशाह को सिंधिया की अपेक्षा अंग्रेजों की दासता में जरा राहत मिली थी। परन्तु वह अंग्रेजों को पसन्द नहीं करता था, जिन्होंने अपनी समस्त कृपा को एक पेन्शन के अन्दर बन्द कर दिया था तथा राजत्व के लक्षण उससे पृथक् कर दिए थे। और सल्तनत की सारी वार्षिक आय उससे छीन कर ये विदेशी अपने काम में ला रहे थे। सिवाय खास अपने कुटुम्ब के और हर तरफ़ से उसके अधिकार परिमित कर दिए गए थे । वास्तव में सिवा हिन्दुस्तान के बादशाह की उपाधि के और सब स्वत्व, सत्ता और अधिकार उससे छीन लिए गए थे। केवल बारह लाख सालाना की शानदार पैन्शन के बदले । कर्नल आक्टरलोनी का प्रताप इन दिनों दिल्ली में तप रहा था। वह कम्पनी बहादुर का रेजीडेन्ट और अंग्रेजी सेना का प्रधान सेनापति था ।