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पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/७३

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केवल इतना ही नहीं, कि उसने मुक्तेसर और अपने गाँवों में सुव्यवस्था स्थापित की और मराठों की रसद पानी मिलने का भी प्रबन्ध कर दिया। यह चौधरी ही का जोड़-तोड़ था कि मुक्तसर से सहारनपुर तक के इलाके में बिना बाधा के मराठों की शक्ति मजबूत बनी रही, जिससे होल्कर और भाऊ की सेनाएँ परस्पर सम्बद्ध रहीं। इस काम में सब से बढ़ कर सहायता मिली सरधने की समरू बेगम से; जो मराठों के प्रभाव में रहीं, जिसका श्रेय श्रय चौधरी को था।

१० :

समरू बेगम समरू बेगम का असल नाम जेबुन्निसा बेग़म था। उसने समरू नाम के एक फ्रेंच सैनिक से विवाह कर लिया था । और वह ईसाई हो गई थी। दुर्भाग्य मे समरू मर गया और बेगम विधवा रह गई। पर वह बड़ी चतुर और वीर रमणी थी। मेरठ के पास सरधने में उसकी जागीर थी। प्रारम्भ ही में मराठों का उसे बहुत प्रश्रय रहा । और अंत में जब दिल्ली के बादशाह शाहआलम सिंधिया के प्रभाव में आए तब बेगम समरू सिंधिया की एक सामन्त बन गई। और उसने अपनी जागीर बहुत बढ़ा ली थी। सिंधिया की सेना में बेगम की चार पल्टनें थीं। तथा द्वाबे के सभी जागीरदार और सरदारों पर उसका प्रभाव था। कहना चाहिए कि बेगम ही की मार्फत सिंधिया का सम्पर्क उत्तर की ओर के तमाम सामन्तों और जमींदारों से था। इसके अतिरिक्त उसकी जागीर ऐसे मौके पर थी कि द्वाबे और पंजाब को बिना उसके जोड़ा ही नहीं जा सकता था। सिंधिया के पतन के बाद बेगम ने अपनी पल्टने स्वतन्त्र कर ली थीं । यह काम निश्चय ही अंग्रेजों के भारी प्रयत्नों से हुआ था। परन्तु इस समय होल्कर सहारनपुर में बैठा बेगम को अपने सम्पर्क में लाने के जोड़-तोड़ लगा रहा था। उधर रणजीतसिंह की बढ़ती हुई सत्ता से अंग्रेज़ बेखर न थे। इससे पंजाब से सम्पर्क बनाए रखने के