पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/७६

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"श्रीमन्त कैसी मदद चाहते हैं ?" "आपकी चार पल्टन प्रथम ही से सिंधिधा की सेना में थीं। वहीं आप अब श्रीमन्त होल्कर की सेना में दे दीजिए।" "श्रीमन्त मेरे साथ कैसा सलूक करेंगे ?' "जैसा सिंधिया दर्बार से आपका होता आया है।" "लेकिन अंग्रेज तो कुछ और ही कहते हैं।" "वे क्या कहते हैं ?" "खैर, उस बात को जाने दीजिए । आप कहिए कि यदि श्रीमन्त का पासा उल्टा पड़ा और अंग्रेज़ जीत गए तो मेरी कैसे रक्षा होगी ?" "आप अभी से ऐसा क्यों विचारती हैं।" "क्यों न विचारूँ। आप जानते हैं, तमाम सूबा अंग्रेजों के ताबे हो गया है। और दिल्ली, आगरा और अलीगढ़ भी उनके हाथ में हैं बादशाह भी अब पैन्शन पाता है । अंग्रेजों का इक़बाल बुलन्द है । "लेकिन हुजूर, आप यह तो सोचें कि जहाँ-जहाँ अंग्रेजों की हुकूमत है वहाँ रियाया का कैसा बुरा हाल है। लोग भूखों मरते हैं और चोर- डाकू-लुटेरों ने इलाकों के नाक में दम कर रखा है। किसी की जान-माल और इज्जत की सलामती नहीं है।" "तो श्रीमन्त ही ने कोनसा अमन कायम किया है । मराठे जहाँ-जहाँ गए-लूट और आग साथ लाए। फिर उनके साथी-पिण्डारी ! अंग्रेजों ने ही तो पिण्डारियों के हाथ से लोगों की रक्षा का बन्दोबस्त किया है।" "क्या बन्दोबस्त किया है ?" "सुनती हूँ एक लाख फौज उनके खातों के लिए अंग्रेज जुटा रहे हैं।" "क्या हुजूर समझती हैं, कि अंग्रजों ने पिण्डारियों के लिए एक लाख फौज जुटाई है—केवल मुल्क में अमन कायम करने के लिए ?" "मैं तो ऐसा ही समझती हूँ।" "तब तो आप यह भी मानेगी कि अंग्रेज़ हमारे मुल्क और यहाँ के आदमियों को भी बहुत चाहते हैं।" ७६