षड्यंत्र उसकी कमर एक पहर रात जा चुकी थी। अनहिल्ल-पट्टन के सब नगर-द्वार बन्द हो चुके थे। दिनभर काम-काज में व्यस्त नगर के पौरजन एवं राजपुरुष सब निद्रादेवी की आराधना में लगे थे। आकाश स्वच्छ था, उसमें उज्ज्वल तारे बहुत भले प्रतीत हो रहे थे। द्वितीया का क्षीण चन्द्र नूतन वधू की दुर्लभ कान्ति प्रतिभासित कर रहा था। इसी समय सरस्वती नदी के निर्जन तट पर एक पुरुष तत्परता से टहल रहा था। नदी-तट पर अनगिनत छोटे-बड़े, नये-पुराने मन्दिरों की पंक्ति बनी हुई थी। वह पुरुष उन मन्दिरों की परछाईं में अपने को छिपाता हुआ वहाँ टहल रहा था। इस पुरुष का कद ठिगना, शरीर कृश और चेहरा साधारण था। वस्त्र भी उसने साधारण ही पहने हुए थे, परन्तु एक उम्दा तलवार अवश्य लटक रही थी। वह पुरुष अवश्य किसी व्यक्ति के आने की प्रतीक्षा में था। थोड़ी-सी आहट होने पर यह चौकन्ना होकर चारों ओर देखने लगता था। थोड़ी देर बाद घोड़ों की टाप के शब्द सुनाई दिए और कुछ ही देर में दो मनुष्य-मूर्ति घोड़ों पर सवार आती हुई उसने देखीं। उस पुरुष के सामने ही कुछ फासले पर एक गहन वट-वृक्ष था, उस वृक्ष के नीचे आकर उन्होंने अश्व रोके। दोनों घोड़ों से उतर पड़े। घोड़े वृक्ष से अपनी लम्बी बागडोर से अटका दिए। और दोनों पुरुष उन मन्दिरों की ओट आगे बढ़े। पूर्वोक्त पुरुष ने एक दीवार की आड़ में अपने को छिपा लिया था। दोनों छाया- मूर्तियाँ उसके निकट होकर चली गयीं। दोनों ही काले आवरण से शरीर को छिपाए थे। इस पुरुष ने नि:शब्द उसका अनुगमन किया। दोनों ही छाया-मूर्तियाँ मन्दिरों और खण्डहरों को पार करती हुईं नदी के किनारे- किनारे आगे बढ़ती चली गईं। वह पुरुष भी अत्यन्त सावधानी से उनके पीछे-पीछे चलता गया। मन्दिरों की पंक्ति समाप्त हो गई। नदी के ऊबड़-खाबड़ कगार पर चलती हुई दोनों मूर्तियाँ बबढ़ती ही गईं। अन्त में वे एक जीर्ण शिवालय के सामने जाकर रुकीं। शिवालय उजाड़ था। वहाँ दिन में भी कोई पुरुष नहीं जाता था। इस समय रात्रि की नीरवता में वह स्थान बहुत भयानक प्रतीत हो रहा था। दोनों में से जो मूर्ति आगे थी, उसने तलवार म्यान से बाहर करके इधर-उधर चारों ओर देखा, वह अपने साथी को संकेत करके मुख्य द्वार छोड़ मन्दिर के पिछवाड़े की ओर चला। इस पुरुष ने भी तलवार म्यान से बाहर निकाल ली और अत्यन्त सावधानी से पदशब्द बचाता हुआ पीछे-पीछे चलने लगा। मन्दिर बहुत बड़ा था, तथा उसके पिछले भाग में बहुत से टूटे-फूटे घर थे। उन सबको पार करते हुए तीनों व्यक्ति अन्तत: एक अपेक्षाकृत अच्छे घर के द्वार पर पहुँच गए। आगे वाले व्यक्ति ने फिर कुछ संकेत किया। थोड़ी देर में एक पुरुष दीपक लेकर भीतर से आया। उसके दूसरे हाथ में नंगी तलवार थी। आगन्तुकों का संकेत समझ सन्तुष्ट हो, उसने दोनों को भीतर कर लिया। पीछे वाले पुरुष ने देखा, वह नान्दोल का प्रसिद्ध जैन यति-जिनदत्त सूरि है। जैन यति को वहाँ देख उस पुरुष को आश्चर्य हुआ। परन्तु भीतर जाकर उन दोनों आगन्तुकों ने
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