जाएगा।" यह कहकर चौहान सरदार ने भेदभरी दृष्टि से वीकणशाह की ओर देखा। वीकणशाह दुबला-पतला, चालाक और सावधान बनिया था। उसने इधर-उधर देखते हुए कहा, "राजकोष राजा का, और मैं राजा का चाकर। पाटन की गद्दी पर जो राजा बनकर बैठेगा, उसी की सेवा में वीकणशाह और समस्त राजकोष उपस्थित है।" "तो अब दो प्रश्न रह गए। एक महाराजाधिराज का, दूसरा युवराज वल्लभ देव का। भीमसिंह बाणबली युवराज के साथ हैं, वे गज़नी के सुलतान का सामना करने के बहाने सिद्ध स्थल में बैठे सैन्य संग्रह कर रहे हैं। भीमदेव बड़ा योद्धा है, और युवराज वल्लभदेव भी साधारण पुरुष नहीं हैं।” जिनेश्वर दत्त ने खूब सावधानी से कहा। "परन्तु उनके पास धन कहाँ है भाई? वे सेना-संग्रह करेंगे कहाँ से? शस्त्र खरीदेंगे कहाँ से? सेना को वेतन देंगे कहाँ से?' वीकणशाह ने कुटिलता से मुस्कराकर कहा। "क्यों? ज्यों ही दुर्लभदेव राजा होंगे, वे तुरंत खुला विद्रोह करके लूटपाट प्रारम्भ कर देंगे। फिर प्रजा उन्हें मानती है। वह उन्हें धन से मदद देगी।” चौहान ने कहा। “ऐसा नहीं हो सकता। प्रथम पाटन के लोग सब जैन-श्रावक-सेठ-साहूकार हमारे साथ हैं। वे भीमदेव की कोई सहायता नहीं करेंगे। दूसरे भीमदेव प्रजा पर लूटपाट करेंगे तो प्रजा उनके पक्ष में न रहेगी। फिर वह प्रजा में लूटपाट करेंगे ही नहीं।” यति जिनदत्त ने कहा। “परन्तु यह न भूलिए कि उनके साथ विमलदेव शाह हैं। वह राज्य का तो कोषाध्यक्ष है, पर है वह वास्तव में वल्लभदेव का मन्त्री। वह एक ऐसा छोकरा है, कि न राजा की आन मानता है, न राजमन्त्री की। उसे हाथ में बिना किए छुटकारा नहीं है।" वीकणशाह ने मुस्कराते हुए कहा। "उसे मेरे सुपुर्द कीजिए। मैं उसे जानता हूँ, वह मुत्सद्दा नहीं है, रण-योद्धा है। उसे अपने धनुष-बाण का बड़ा अभिमान है, और अच्छे-अच्छे महालय बनवाने का शौक है। वह जैन धर्मानुयायी है। वह हमसे बाहर जा नहीं सकता। जैन यति ने कहा। चौहान सरदार ने कहा, “तो सबसे पहला काम यह है कि वल्लभदेव और भीमदेव को ही बन्दी किया जाए।" “परन्तु यह काम युद्ध करके या बल से नहीं, छल से ही होना चाहिए,” वीकणशाह ने कहा। “छल से कैसे?" “आज इस समय दोनों पाटन में उपस्थित हैं। संग में सेना भी नहीं है। महाराज उन्हें बन्दी करने की आज्ञा दे चुके हैं। मैं दण्डपाल को आदेश देता हूँ कि उन्हें नगरद्वार पर बन्दी कर लिया जाए।" “यह उत्तम है, परन्तु इससे राजधानी में विद्रोह हो गया तो?" राजमाता ने कहा। "कैसे होगा? कानों-कान यह बात कोई जान भी न पाएगा। दोनों ही छद्मवेश में आए हैं। कौन जानता है कि कौन बन्दी हुआ। राजद्वार के सौ झमेले होते हैं।" “तो वीकण, तुम यह भार लेते हो?" "क्यों नहीं, परन्तु महामन्त्री की मुद्रा तो मुझे ही मिलेगी न?"
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