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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१३

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निर्माल्य

 

सूर्य अस्त हो चुका था। संध्या का अंधकार चारों ओर फैल गया था। केवल पश्चिम दिशा में एकाध बादल क्षण-क्षण में क्षीण होती अपनी लाल आभा झलका रहा था, जिसका स्वर्ण प्रतिबिम्ब सोमनाथ महालय के स्वर्ण-शिखरों पर अपनी क्षीयमान झलक दिखा रहा था। इसी समय एक अश्वारोही प्रभास पट्टन के कोट-द्वार पर आकर खड़ा हो गया। कोटद्वार अभी बन्द नहीं हुआ था। प्रहरियों के प्रमुख ने आगे बढ़कर पूछा, "तुम कौन हो, और कहाँ से आ रहे हो?"

अश्वारोही कोई बीस-बाईस वर्ष का एक बलिष्ठ और सुन्दर तरुण था। उसकी मुखचेष्टा तथा अश्व के रंग-ढंग देखने से प्रकट होता था कि वह दूर से आ रहा है, तथा सवार और अश्व दोनों ही बिलकुल थक गए हैं। फिर अश्वारोही ने थकित भाव से किन्तु उच्च स्वर से एक हाथ उँचा करके तथा दूसरे से अपने गट्ठर को सम्हालते हुए पुकारा, "जय सोमनाथ!"

"किन्तु तुम्हारा परिचय-पत्र?" प्रहरी ने उसके निकट जा कर्कश स्वर में पूछा।

"यह लो!" अश्वारोही ने एक चाँदी की नली, रेशम की थैली से निकाल कर उसे दी। प्रहरी ने नली को खोलकर उसमें से एक पट्टलेख निकाला। उलट-पुलट कर उसे पढ़ा। फिर कुछ भुनभुनाते हुए कहा, "तो तुम भरुकच्छ से आ रहे हो?"

"जी हां, दद्दा चालुक्य ने त्रिपुरसुन्दरी के लिए जो निर्माल्य भेजा है, उसी को लेकर।" प्रहरी ने एक बार अश्व की पीठ पर लदे भारी गट्ठर पर दृष्टि की, और 'जय सोमनाथ' कहकर पीछे हट गया। अश्वारोही ने कोट के भीतर प्रवेश किया।

कोट के भीतर बड़ी भीड़ थी। देश-देश के यात्री वहाँ भरे थे। उन दिनों प्रभास पट्टन समस्त भरतखण्ड भर में पाशुपात आम्नाय का प्रमुख केन्द्र विख्यात था। भारत के कोने-कोने से श्रद्धालु भक्त-गण शिवरात्रि महापर्व पर सोमनाथ महालय में सोमनाथ के ज्यातिर्लिंग के दर्शन करने को एकत्र हुए थे। इस वर्ष गज़नी के अप्रतिरथ विजेता अमीर सुलतान महमूद के सोमनाथ पर अभियान करने की बड़ी गर्म चर्चा थी। इसी कारण दूर-दूर से क्षत्रिय क्षत्रधारी महीपगण इस देव के लिए रक्त-दान देने और अनेक श्रद्धालु "कल न जाने क्या हो" इस विचार से एक बार भगवान सोमनाथ का दर्शन करने जल-थल दोनों ही मार्गों से ठठ-के-ठठ प्रभास में इकट्ठे हो गए थे। राजा-महाराजाओं के रथ, अश्व, गज, वाहन, सैनिक-सेवक, मोदी-व्यापारी-यात्री—सब मिलाकर इस समय प्रभास पट्टन में इतनी भीड़ हो गई थी कि जितनी इधर कई वर्षों से देखी नहीं गई थी। पट्टन की सब धर्मशालाएं और अतिथिगृह भर गए थे। बहुत लोग मार्ग में, वृक्षों के नीचे तथा घरों की छाया में विश्राम कर रहे थे।

यात्री धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ धर्मशाला में आश्रय खोजने लगा, पर धर्मशालाएँ सब भरी हुई थीं। एक भी कोठरी खाली न थी। धर्मशाला के बाहर की कोठरियों में गरीब यात्री, भिखारी और चौकीदार प्रहरीगण रहते थे, वहीं एक छोटी-सी कोठरी खाली देखकर