चौहान की रणसज्जा महाराज धर्मगजदेव ने अब बिना एक क्षण विलम्ब किए तुरन्त युद्ध समिति की एक संक्षिप्त बैठक की। समिति में सांभर के ढुंढिराज, आमेर के दुर्लभदेव, बदनेर और देवगढ़ के ठाकुर सरदार और सोजत-पाली के इलाकेदार मण्डलेश्वर सम्मिलित हुए। सपादलक्ष के महाराज की कमान में इस समय सब मिलाकर साठ हजार सेना एकत्रित हो गई थी। इसमें तीस हजार सवार, आठ हज़ार धनुर्धर भील, एक हज़ार हाथी और शेष पैदल सेना थी। अजमेर से आगे गुजरात के मार्ग पर अरावली की पर्वत-श्रेणियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं, और ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते हैं, दुर्गम वन-पथ आता-जाता है। नान्दोल से आगे विकट वन है, और उसके बाद दूर तक एक तंग घाटी में होकर मार्ग जाता है। उस घाटी के उस पार फिर खुले चौड़े हरे-भरे मैदान और फिर आबू के मनोरम दृश्य नज़र आते हैं। महाराज धर्मगजदेव ने आमेर के राजा दुर्लभदेव की बढ़ाई करके कहा, "हे वीर! मैं तुम्हें सबसे पहले सबसे कठिन काम सौंपता हूँ। गज़नी के इस राक्षस को मैं भलीभाँति जानता हूँ। इसने सोलह बार भारत को आक्रान्त किया है। मुझसे जहाँ तक बनेगा, मैं इसे रोकूँगा। पर मुझे आगे का भी विचार करना चाहिए। सो तुम अपनी मीना राजपूतों की सम्पूर्ण सेना और आठ हज़ार भीलों को लेकर सीधे नान्दोल जाओ। वहाँ मेरा भतीजा अनहिल्ल राज है, वह गुजरात के सोलंकियों का भी सम्बन्धी है, वह तुम्हारी सहायता करेगा। सो तुम सब, यदि यह दैत्य कदाचित् यहाँ से बचकर भी निकल जाए तो व्यर्थ युद्ध करके अपनी शक्ति नष्ट न करना। प्रत्युत इसे नान्दोल के वन में घेरकर घाटी में ले जाना। वहाँ तुम्हारे भील, मीना और राजपूत इससे निबट लेंगे। चाहे जितना सैन्यबल होने पर भी वहाँ से इसका निस्तार नहीं है।" इतना कहकर, उसने युवक दुर्लभराय की कमर में अपनी जड़ाऊ तलवार बांधी, और उसे विदा किया। देवगढ़, सोजत और बदनेर के सरदारों को भी ऊँच-नीच समझाकर उसके साथ ही आदरपूर्वक रवाना कर दिया। यह कर्मठ राजा सारी रात व्यस्त रहा। उसने अपनी कुल सेना के तीन भाग कर डाले। आठ हज़ार सवार और दस हज़ार पैदल सेना तथा चार सौ हाथी सांभर के महाराज ढुंढिराज की कमान में सौंप, पुष्कर से पीछे हटाकर अमीर के वाम भाग में छिपा दिया। आठ हज़ार सवार और पन्द्रह हज़ार पैदल, मन्त्री-पुत्र सोढल की कमान में अजमेर की रक्षा में छोड़े। शेष हाथी-घोड़े और पैदल सेना ले वह स्वयं अमीर का सामना करने को व्यूहबद्ध खड़ा हुआ। व्यूह में सम्मुख पदातिक, पक्षों में अश्वारोही और पृष्ठ भाग में गज-सैन्य स्थित की। सरदार और सेनानायक अपनी-अपनी टोली के सम्मुख सन्नद्ध खड़े हो गए। भाट- चारण विरद बखानने लगे। कूच का नक्कारा बजा, धोंसे पर चोट पड़ी। सेना ने रणांगण की ओर प्रयाण किया। बन्दीजन धर्मगजदेव तथा अन्य मंडलेश्वरों की प्रशस्ति गाते चले। सेना में उत्साह
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