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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१५१

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दुर्लभराय का अभियान आमेर का युवक राजा दुर्लभराय सपादलक्ष के वीर महाराज का आदेश पा भीलों, मीनों और राजपूतों की संयुक्त सैन्य ले नान्दोल की ओर बढ़ा। उसके साथ देवगढ़ और सोजत के ठाकुर सरदार भी थे। यद्यपि दुर्लभराय की इच्छा महाराज धर्मगजदेव के साथ- साथ पुष्कर क्षेत्र में अमीर से लोहा लेने की थी, परन्तु वह जैसा वीर था वैसा ही मेधावी और विचारशील भी था। उसने तुरन्त समझ लिया कि मुद्दे की बात युद्ध नहीं है, अमीर की राह रोकनी है। इसलिए वह दूरदर्शी महाराज से तुरन्त ही न केवल सहमत हो गया, प्रत्युत उसने साथी सरदारों को सब बात समझा-बुझाकर अपनी मौलिक योजना भी बना ली। उसने सोच लिया कि युद्ध में शौर्य दिखाने की आवश्यकता नहीं है। कौशल से शत्रु-सेना की प्रगति में बाधा पहुँचाना और कम से कम अपनी हानि करके अधिक-से-अधिक शत्रु को क्षति पहुँचाना ही उसका ध्येय है। अभी यह वीर देवगढ़ ही पहुँचा था कि उसे महाराज धर्मगजदेव के पतन का समाचार मिला। महाराज की दूरदर्शिता का महत्त्व उसने अब समझा। उसने झटपट सब अश्वारोही राजपूतों को दो दलों में विभक्त कर उन्हें देवगढ़ और सोजत के सरदारों को सौंप कर कहा, “आप तमाम इलाके में फैल जाएँ। सब गाँव-बस्तियों को उजाड़ दें। प्रजा को पर्वतों में भेज दें। खेत, कुएँ, जलाशय नष्ट कर दें, राह, घाट, पुलों को तोड़-फोड़ दें। धीरे- धीरे यह सब व्यवस्था करते हुए आगे बढ़कर नान्दोल में मुझसे मिल जाएँ।” यह व्यवस्था करके वह अपनी भील और मीनाओं की पैदल सेना ले दुहरा कूच करता हुआ तेज़ी से नान्दोल जा पहुँचा। नान्दोल का राजा अनहिल्लराय एक महत्त्वाकांक्षी और तेजस्वी युवक था। उसके हौसले बढ़े हुए थे। वह अभी तक यद्यपि गुजरात का एक सामन्त था पर उसने गुर्जरेश्वर चामुण्डराय की ढिलमिल नीति और खराब परिस्थिति से लाभ उठाकर वहाँ वर्षों से वार्षिक कर भेजना बन्द कर दिया था। उधर वह अवन्तिराज भोज से मुठभेड़ करने को तैयार बैठा था, इधर गुजरात का सामना करने की भी उसने तैयारी कर ली थी। पाठक जानते ही हैं कि वह गुजरात की महारानी दुर्लभदेवी के षड्यन्त्र में सम्मिलित होकर अपने पुत्र को गुजरात का स्वामी बनाकर सम्पूर्ण गुजरात, सौराष्ट्र, लाट और मालव का एकछत्र स्वामी होने का स्वप्न देख रहा था। मालवराज भोज की उसपर दृष्टि थी। वह महत्त्वाकांक्षी विद्वान् राजा, सिन्ध नद मुहाने तक समुद्र को छूता हुआ अपना साम्राज्य स्थापित करना चाह रहा था। उसने अर्बुदेश्वर धुन्धुराज को अपने अनुकूल कर लिया था। अब नान्दोल का अनहिल्लराय ही उसकी सबसे बड़ी बाधा थी। उसे नर्म करने ही को धुन्धुराज का पुत्र बाला प्रसाद नान्दोल में युवराज का मित्र बनकर उसे अनुकूल करने की खटपट में व्यस्त था। नान्दोल में धड़ाधड़ नई सेनाएँ भरती हो रही थीं। अश्व, गज खरीदे जा रहे थे। कच्छ, भरुच और सिन्धु के व्यापारी घोड़ों और शस्त्रास्त्रों को लेकर आ रहे थे।